पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/९४

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बीर साहब चन्दन गया बिदेसड़े सब कोइ कहै ज्यों ज्यों चूल्हे झांकिया ३२ पलास । त्यों त्यों अधिकी बास ॥११३॥ मैं भी हो गई लाल ॥ बारह लाल । ११४ ॥ मास बिलास । लाली मेरे लाल को जित देखों तित लालो देखन मैं गई हम बासो वा देस जाँ प्रेत झिरे विगसै कँवल कजोर जब हम गावते अब गुरु दिल में देखिया ज्ञानी से कहिये कहा अंधे आगे नाचते जो ते को तोहि फूल को फूल है दुर्बल को न सताइये बिना जीवको स्वास से ऐसी बानो बोलिये औरन को सोतल करै हस्ती चढ़िये ज्ञान की स्वान रूप संसार है आवत गारो एक है कह कबीर नहिं उलटिये तेज पुंज परकास ॥ तब जाना गुरु गावन को कछु नाहि कहत कबीर कला अकारथ जाय ।। बोध तू ११५ ॥ नाहि । ॥ ११६ ॥ लजाय । ११७ ॥ काँटा बुवै ताहि फूल । वाको है तिरसूल ॥ ११८ ॥ जाकी मोठी हाय । लोह भसम होजाय ॥ ११६ ॥ मन का आपा खोय | आपहुँ सीतल होय ॥ १२० ॥ सहज दुलीचा डारि । भूलन दे झख मारि ।। १२१ । उलटत होय अनेक | वही एक की एक ॥। १२२ । जाके उद्यम येह । तौ हम चरनन की खेह पावै ॥ १२३ ॥ दीदार | बहुरि बोले नाहि न बारम्बार ।। १२४ ॥ विचार | कथा कोरतन रात दिन कह कबीर ता साधु की बन्दे तू कर बन्दगी जनम का औसर मानुष साधु भया तो क्या भया पराई आतमा जीभ बाँधि तरवार ।। १२५ ॥