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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/९५

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मधुर वचन है औषधी स्वयम द्वार है सघरै बोलत ही कटुक वचन है तीर । सालै सकल सरीर ॥ पहिचानिये साहु चोर को १२६ ॥ घाट । अन्तर की करनी सबै जिन हूँढ़ा तिन पाइयाँ निकसे मुख की वाट गहिरे पानी ।। १२७ ॥ पैठि । पढ़ना गुनना चातुरी काम दहन मन बसि करन भय बिनु भाव न ऊपजै बौरा डूबन डरा रहा किनारे बैठि ॥ गगन चढ़न मुस्कल ॥ १२८ ॥ यह तो बात सहल | १२६ ॥ भय बिनु होय न प्रीति । जब हिरदे से भय गया कथनी मीठी खाँड़ कथनी तजि करनी सी मिटी. सकल रल रीति ॥१३०॥ करनी विष की लोय । करै लाया साखि बनाय करि तौ विष से अमृत होय ॥ १३१ ॥ हत उन अच्छर कह कबीर कब लग जिये जूठी पत्तल चाटं ।। १३२ ।। पानी मिलै न आपको औरन बकसंत छीर । आपन मन निस्वल नहीं और बँधावत धीर ॥ १३३ ॥ जो गिरै ताको नाहीं मारग चलते कह कबीर बैठा रहे ता सिर करड़े कोस काट । दोस ! || १३४ || रोड़ा होइ रहु बाटका तजि आपा अभिमान । लोभ मोह तृस्ना तजै ताहि मिलै निज नाम ।। १३५ ।। नीर भया तो रोड़ा भया तो क्या भया पंथी को दुख साधू ऐसा चाहिये ज्यों पेंड़े की खेह केह भई तो क्या भया उडि साधू ऐसा चाहिये जैसे नीर क्या भय साधू ऐसा चाहिये ताता जो हरि ही जैसा होय ।। १३८ ||. देह | ॥ १३६ ॥ उड़ि लागे अंग । निपंग ॥ १३७ ॥, सीरा जोय ।.