सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कामायनी.djvu/१००

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

इड़ा ग्लानि से भरी हुई बस सोच रही बीती बातें ,
घृणा और ममता में ऐसी बीत चुकीं कितनी रातें ।

नारी का वह हृदय ! हृदय में--सुधा-सिंधु लहरें लेता ,
बाड़व-ज्वलन उसी में जलकर कंचन सा जल रंग देता ।
मधु-पिंगल उस तरल-अग्नि में शीतलता संसृति रचती,
क्षमा और प्रतिशोध ! आह रे दोनों की माया नचती ।

"उसने स्नेह किया था मुझसे हाँ अनन्य वह रहा नहीं ,
सहज लब्ध थी वह अनन्यता पड़ी रह सके जहाँ कहीं ।
बाधाओं का अतिक्रमण कर जो अबाध हो दौड़ चले ,
वही स्नेह अपराध हो उठा जो सब सीमा तोड़ चले ।

"हाँ अपराध, किंतु वह कितना एक अकेले भीम बना ,
जीवन के कोने से उठ कर इतना आज असीम बना !
और प्रचुर उपकार सभी वह सहृदयता की सब माया ,
शून्य-शून्य था ! केवल उसमें खेल रही थी छल छाया !

“कितना दुखी एक परदेशी बन, उस दिन जो आया था ,
जिसके नीचे धारा नहीं थी शून्य चतुर्दिक छाया था ।
वह शासन का सूत्रधार था नियमन का आधार बना ,
अपने निर्मित नव विधान से स्वयं दंड साकार बना ।

"सागर की लहरों से उठकर शैल-शृंग पर सहज चढ़ा ,
अप्रतिहत गति, संस्थानों से रहता था जो सदा बढ़ा ।
आज पड़ा है वह मुमूर्षु-सा वह अतीत सब सपना था ,
उसके ही सब हुए पराये सबका ही जो अपना था ।

88 / कामायनी