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पृष्ठ:कामायनी.djvu/९९

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निर्वेद

वह सारस्वत नगर पड़ा था क्षुब्ध, मलिन, कुछ मौन बना ,
जिसके ऊपर विगत कर्म का विष-विषाद-आवरण तना।
उल्का धारी प्रहरी से ग्रह—तारा नभ में टहल रहे ,
वसुधा पर यह होता क्या है अणु अणु क्यों हैं मचल रहे ?

जीवन में जागरण सत्य है या सुषुप्ति ही सीमा है ,
आती है रह-रह पुकार सी 'यह भव-रजनी भीमा है ।'
निशिचारी भीषण विचार के पंख भर रहे सरटेि ,
सरस्वती थी चली जा रही खींच रही-सी सन्नाटे ।

अभी घायलों की सिसका में जाग रही थी मर्म-व्यथा,
पुर-लक्ष्मी खगरव के मिस कुछ कह उठती थी करुण-कथा।
कुछ प्रकाश धूमिल-सा उसके दीपों से था निकल रहा ,
पवन चल रहा था रुक-रुक कर खिन्न, भरा अवसाद रहा।

भयमय मौन निरीक्षक-सा या सजग सतत चुपचाप खड़ा,
अंधकार का नील आवरण दृश्य-जगत से रहा बड़ा।
मंडप के सोपान पड़े थे सूने, कोई अन्य नहीं ,
स्वयं इड़ा उस पर बैठी थी अग्निशिखा सी धधक रही।

शून्य राज-चिह्नों से मंदिर बस समाधि-सा रहा खड़ा ,
क्योंकि वहीं घायल शरीर वह मनु का तो था रहा पड़ा।

कामायनी / 87