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पृष्ठ:कामायनी.djvu/१०४

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चिर निराशा नीरधर से ,
प्रतिच्छायित अश्रु-सर में,
मधुप-मुखर , मरंद-मुकुलित,
मैं सजल जलजात रे मन !"



उस स्वर-लहरी के अक्षर सब संजीवन रस बने घुले,
उधर प्रभात हुआ प्राची में मनु के मुदित-नयन खुले।
श्रद्धा का अवलंब मिला फिर कृतज्ञता से हृदय भरे,
मनु उठ बैठे गद्गद होकर बोले अनुराग भरे।

"श्रद्धा ! तू आ गयी भला तो—पर क्या मैं था यहीं पड़ा !"
वही भवन, वे स्तंभ, वेदिका ! बिखरी चारों ओर घृणा ।
आँख बंद कर लिया क्षोभ से "दूर दूर ले चल मुझको ,
इस भयावने अंधकार में खो दें कहीं न फिर तुझको ।

हाथ पकड़ ले, चल सकता हूँ-हाँ कि यही अवलंब मिले,
वह तू कौन ? परे हट, श्रद्धे ! आ कि हृदय का कुसुम खिले ।"
श्रद्धा नीरव सिर सहलाती आंखों में विश्वास भरे ,
मानो कहती तुम मेरे हो अब क्यों कोई वृथा डरे ?"

जल पीकर कुछ स्वस्थ हुए से लगे बहुत धीरे कहने ,
"ले चल इस छाया के बाहर मुझको दे न यहाँ रहने ।
मुक्त नील नभ के नीचे या कहीं गुहा में रह लेंगे ,
अरे झेलता ही आया हूँ--जो आवेगा सह लेंगे ।"

"ठहरो कुछ तो बल आने दो लिवा चलूँगी तुरत तुम्हें ,
इतने क्षण तक" श्रद्धा बोली-"रहने देंगी क्या न हमें ?"
इड़ा संकुचित उधर खड़ी थी यह अधिकार न छीन सकी ,
श्रद्धा अविचल, मनु अब बोले उनकी वाणी नहीं रुकी ।

92 / कामायनी