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पृष्ठ:कामायनी.djvu/१०५

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"जब जीवन में साध भरी थी उच्छृंखल अनुरोध भरा ,
अभिलाषाएँ भरी हृदय में अपनेपन का बोध भरा।
मैं था, सुन्दर कुसुमों की यह सघन सुनहली छाया थी,
मलयानिल की लहर उठ रही उल्लासों की माया थी !

उषा अरुण प्याला भर लाती सुरभित छाया के नीचे
मेरा यौवन पीता सुख से अलसाई आँखें भींचे।
ले मकरंद नया चू पड़ती शरद-प्रात की शेफाली,
बिखराती सुख ही, संध्या की सुन्दर अलके घुँघराली ।

सहसा अंधकार की आँधी उठी क्षितिज से वेग भरी ,
हलचल से विक्षुब्ध विश्व--थी उद्वेलित मानस लहरी ।
व्यथित हृदय उस नीले नभ में छायापथ-सा खुला तभी ,
अपनी मंगलमयी मधुर-स्मिति कर दी तुमने देवि ! जभी ।

दिव्य तुम्हारी अमर अमिट छवि लगी खेलने रंग-रली ,
नवल हेम-लेखा-सी मेरे हृदय-निकष पर खिंची भली।
अरुणाचल मन-मन्दिर की वह मुग्ध-माधुरी नव प्रतिमा ,
लगी सिखाने स्नेह-मयी सी सुन्दरता की मृदु महिमा।

उस दिन तो हम जान सके थे सुन्दर किसको हैं कहते !
तब पहचान सके, किसके हित प्राणी यह दुख-सुख सहते।
जीवन कहता यौवन से--"कुछ देखा तूने मतवाले "
यौवन कहता--"साँस लिये चल कुछ अपना संबल पा ले !"

हृदय बन रहा था सीपी-सा तुम स्वाती की बूंद बनीं ,
मानस-शतदल झूम उठा जब तुम उसमें मकरंद बनीं ।
तुमने इस सूखे पतझड़ में भर दी हरियाली कितनी ,
मैंने समझा मादकता है तृप्ति बन गयी वह इतनी !

कामायनी/ 93