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पृष्ठ:कामायनी.djvu/४०

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वह विराग-विभूति ईर्षा-पवन से हो व्यस्त,1
बिखरती थी और खुलते ज्वलन-कण जो अस्त।
किन्तु यह क्या? एक तीखी घूँट, हिचकी आह ।
कौन देता है हृदय में वेदनामय डाह ?

आह यह पशु और इतना सरल सुंदर स्नेह !
पल रहे मेरे दिये जो अन्न से इस गेह।
मैं ? कहाँ मैं ? ले लिया करते सभी निज भाग ,
और देते फेंक मेरा प्राप्य तुच्छ विराग !
अरी नीच कृतघ्नते ? पिछल-शिला-संलग्न ,
मलिन काई-सी करेगी हृदय कितने भग्न ?
हृदय का राजस्व अपहृत कर अधम अपराघ ,
दस्यु मुझसे चाहते हैं सुख सदा निर्बाध ।
विश्व में जो सरल सुंदर हो विभूति महान
सभी मेरी हैं, सभी करती रहें प्रतिदान।
यही तो, मैं ज्वलित वाडव-वह्नि नित्य-अशांत ,
सिंधु लहरों सा करें शीतल मुझे सब शांत ।"

आ गया फिर पास क्रीड़ाशील अतिथि उदार ,
चपल शशव सा मनोहर भूल का ले भार ।
कहा-“क्यों तुम अभी बैठे ही रहे धर ध्यान ,
देखती हैं आँख कुछ, सुनते रहे कुछ कान--
मन कहीं, यह क्या हुआ है ? आज कैसा रंग ?"
नत हुआ फण दृप्त ईर्षा का, विलीन उमंग ।
और सहलाने लगा कर-कमल कोमल कांत ,
देख कर वह रूप-सुषमा मनु हुए कुछ शांत ।

1.देखिए-पादटिप्पणी, पृष्ठ 16

28 / कामायनी