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पृष्ठ:कामायनी.djvu/४१

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कहा--"अतिथि ? कहाँ रहे तुम किधर थे अज्ञात ?
और यह सहचर तुम्हारा कर रहा क्यों बात-- ?
किसी सुलभ भविष्य की, क्यों आज अधिक अधीर ?
मिल रहा तुमसे चिरंतन स्नेह सा गंभीर ?
कौन हो तुम खींचते यों मुझे अपनी ओर !
और ललचाते स्वयं हटते उधर की ओर !
ज्योत्स्ना-निर्भर ! ठहरती ही नहीं यह आँख ,
तुम्हें कुछ पहचानने की खो गयी-सी साख ।
कौन करुण रहस्य है तुममें छिपा छविमान ?
लता-वीरुध दिया करते जिसे छायादान ।
पशु कि हो पाषाण सब में नृत्य का नव छंद ,
एक आंलिगन बुलाता सभा को सानंद।
राशि-राशि बिखर पड़ा है शांत संचित प्यार ,
रख रहा है उसे ढोकर दीन विश्व उधार ।
देखता हूँ चकित जैसे ललित लतिका-लास ,
अरुण घन की सजल छाया में दिनांत निवास--
और उसमें हो चला जैसे सहज सविलास ,
मदिर माधव-यामिनी का धीर-पद-विन्यास ।
आह यह जो रहा सूना पड़ा कोना दीन--
ध्वस्त मंदिर का, बसाता जिसे कोई भी न--
उसी में विश्राम माया का अचल आवास ,
अरे यह सुख नींद कैसी, हो रहा हिम-हास !
वासना की मधुर छाया ! स्वास्थ्य, बल, विश्राम !
हृदय की सौंदर्य्य-प्रतिमा ! कौन तुम छविघाम !
कामना की किरन का जिसमें मिला हो ओज ,
कौन हो तुम, इसी भूले हृदय की चिर-खोज !
कुंद-मंदिर-सी हँसी ज्यों खुली सुषमा बाँट ;
क्यों न वैसे ही खुला यह हृदय रुद्ध-कपाट ?
"

कामायनी / 29