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काव्य में रहस्यवाद

खोजने का स्वप्न टूटने पर अट्टहास होने लगेगा, तब सहृदयता और भावुकता तो कोई और ठिकाना ढूँढ़ेगी; हाँ, अज्ञानोपासना सिद्धता का मुकुट या पैगंवरी का चौगोशिया ताज पहनाने के लिए ठहरे तो ठहरे।

सारांश यह कि जहाँ तक अज्ञात की ओर अनिश्चित संकेत मात्र रहता है वहाँ तक तो प्रकृत काव्यवष्टि रहती है पर जब उसके आगे बढ़कर उस अज्ञात को अव्यक्त और अगोचर कहकर उसका चित्रण होने लगता है, उसका पूरा ब्योरा दिया जाने लगता है, तब लोकोत्तर दिव्यदृष्टि का दावा-सा पेश होता हुआ जान पड़ता है। इस दावे का हृदय पर बड़ा बुरा प्रभाव पड़ता है। एक ओर—श्रोता या पाठक के पक्ष मे—तो इससे अज्ञान-प्रियता का अनुरंजन होता है, दूसरी ओर—कवि के पक्ष में—उस अनान-प्रियता से लाभ उठाकर अहंकार-तुष्टि का अभ्यास पड़ता है। पहुँचे हुए सिद्ध या ब्रह्मदर्शी बननेवाले वहुत-से साधु शास्त्रों की सुनी-सुनाई बातो को—उनकी कुछ अगाड़ी-पिछाड़ी खोल—पहेली के रूप में करके गँवारों को चकित किया करते हैं। यह प्रवृत्ति शिक्षितों और पढ़े-लिखे लोगों में और भी अनर्थ खड़ा करती है। यदि कोई व्यक्ति अभिज्ञान-शाकुन्तल की आध्यात्मिक व्याख्या करे, मेघदूत के मेघ की यात्रा को जीवात्मा का परमात्मा में लीन होने का साधन-पथ बतावे, तो कुछ लोग तो विरक्ति से मुँह फेर लेंगे, पर वहुत-से लोग आँखे फाड़ कर काष्ठ-कौशिक की तरह ताकते रह जायेंगे।