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पृष्ठ:काव्य में रहस्यवाद.djvu/६०

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काव्य में रहस्यवाद


कौन कविता सच्ची रहस्य-भावना को लेकर चली है और कौन वादग्रस्त आडंबर मात्र है, यह पहचानना कुछ कठित नहों है। ऊपर जो पहचान बताई गई है वह वर्ण्य वस्तु (Matter) के सम्बन्ध में है। वर्णन-प्रणाली (Form) की कुछ पहचान आगे कही जायगी।

एक ही कवि कभी वादग्रस्त होकर अपने को लोक से परे प्रकट करने का शब्द प्रयत्न करता है; कभी भाव की स्वच्छ भूमि पर विचरण करता है। वही अबरक्रोंबे जो कभी वादग्रस्त होकर "चेतना-नामक कोने से बाहर" की बात कहने जाता है जब लोकवादी (Humanitarian) के रूप मे हमारे सामने आता है, या विशुद्ध काव्यदृष्टि का प्रमाण देता है, तब उसकी सचाई में सन्देह करने की कोई जगह नही रह जाती। यही वात श्रीरवीन्द्रनाथ ठाकुर के सम्बन्ध में भी ठीक समझनी चाहिए। उनकी रहस्यवाद की वे ही कविताएँ रमणीय हैं जो लोकमक्ष-समन्वित हैं। जैसे, 'गीतांजलि' का यह पद—

जो कुछ दे तू हमे उसी से काम हमारा सरता है।
कमी न होती उसमे कुछ वह पीछे तुझपर फिरता है।
सरिताएँ सब बहती-बहती जगहित मे आती जाती।
अविच्छिन्न धारा से तेरे पद धोने को फिर धातीं।
सभी कुसुम अपने सौरभ से सकल सृष्टि को महकाते।
तेरी पूजा में वे अपना महायोग हैं रच पाते।
जग वंचित हो जिससे ऐसी तेरी पूजन-वस्तु नहीं।
जग-हित में आई न वस्तु जो तब पूजन की नहीं, नहीं।