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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४८२

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४६० गीता-हृदय खतरा ही ठहरा । तो फिर किया क्या जाय ? इसीका उत्तर-इसी पहेलीका समाधान-आगेके दो श्लोक इस तरह करते है- "रागद्वेषवियुक्तस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् । आत्मवश्यविधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥६४॥ प्रसादे सर्वदुःखाना हानिरस्योपजायते। प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥६५॥ राग और द्वेपसे शून्य तथा अपने कब्जेमे रहनेवाली इन्द्रियोंके द्वारा (अावश्यक) विषयोको भोगनेवाले पुरुषका तो मन अपने अधीन रहनेके कारण (चित्तकी) प्रसन्नता (ही) प्राप्त होती है। प्रसन्नता होनेपर इस (मनुष्य)की सारी तकलीफें खत्म हो जाती है। क्योकि प्रसन्नचित्त पुरुषकी बुद्धि शीघ्र ही सर्वथा स्थिर हो जाती है । ६४१६५। यहाँपर कई बातें जानने योग्य है । पदार्थोंके खयाल या ससर्ग मात्रसे ही कुछ होता जाता नही । विरागी पुरुष भी तो आखिर खाता- पीता और जीवनयात्रा करता ही है। उसके दिमागके सामने भी पदार्थ आते ही रहते है । मगर वह तो चौपट होता नही ? क्यो? इसीलिये न, कि पूर्व कथनके अनुसार उसके भीतर पदार्थोंके लिये रस नही है, सग और आसक्ति नहीं है, राग द्वेष नही है ? वह तो पदार्थोसे उदासीन रहता है। केवल अनिवार्य आवश्यकतासे ही उनसे काम लेता है। मलमूत्र त्यागका ही दृष्टान्त लें। हर आदमीके लिये यह प्रतिदिन जरूरी वात है । मगर क्या कभी ऐसा भी देखा-सुना गया कि कोई आदमी मल- मूत्र त्यागमे आसक्ति रखता हो ? ऐसा तो कभी होता नहीं । क्यो ? इसीलिये न कि मजबूरन लोगोको यह काम करना ही पडता है । नहीं तो शरीर रहेई न ? अनिवार्य आवश्यकताके अतिरिक्त इस काममे और कोई वजह होती ही नहीं। इसीलिये उसमें फंसनेका सवाल उठता ही नहीं। वैराग्ययुक्त विवेकी पुरुप ठीक इसी तरह खानपान वगैरह भी