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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४८३

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दूसरा अध्याय ४६१ करता है। उसकी नजरमे मलमूत्र त्याग और खानपान आदिमें जरा भी अन्तर नही है-दोनो ही शरीर-रक्षाके लिये अनिवार्य है। उसे न तो मलमूत्रमे राग द्वेष है, आसक्ति है, चस्का है और न खानपान आदिमे ही। फिर वह फंसेगा क्यो ? बस, यही बात हमे करनी होगी यदि हम भी कल्याण चाहते है, चौपट होना नही चाहते और सभी अनर्थोसे बचना चाहते है। “रागद्वेषवियुक्त "मे जो वियुक्त शब्द है वह यही वात बताता है कि हम इन बातोमे जरा भी चसके न, लिपटे न, जैसा कि मलमूत्र त्यागमे नही लिपटते । पहलेके ६०वे श्लोकमे "इन्द्रियाणि प्रमाथीनि" आदि उत्तरार्द्धमे यह कहा गया है कि इन्द्रियाँ पुरुषको बेचैन कर देती है, मथ देती है जैसे मथानीसे दही मथा जाय और मनको जबर्दस्ती खीच ले जाती है । मथनेकी बात हम "व्यथयन्ति'की व्याख्यामे बखूबी बता चुके है । उसका उलटा यहाँ कह दिया है कि “आत्मवश्य " अर्थात् इन्द्रियाँ अपने कावूमे हो जाती है, अपने मनके अधीन रहती है। आत्माका अर्थ स्वय और मन दोनो ही है । जव चस्का और रागद्वेष नही है, तो इन्द्रियोको यह शक्ति होती ही नही कि मनको खीच सके । क्योकि वही तो रस्सी है जिनके द्वारा उनके साथ मन जुटा है। इसीलिये जव चाहती है उसे अपनी ओर खीच लेती है। मगर वह रस्सी ही अब गई है टूट । फिर हो क्या ? मगर मनीराम कौनसे भले है ? यह हजरत तो खुद इन्द्रियोकी पीठ ठोकते और ललकारते फिरते है कि वाहवाह, खूब किया । ऐसी दशामे यदि इन्द्रियाँ इनके हाथ आ गईं तो इन्हे तो मजा ही हुआ। अब पीठ ठोकने- में और भी आसानी जो होगी। इसीलिये कह दिया है कि "विधेयात्मा" असलमे मनीराम यह काम जरूर करते । मगर वे तो खुद परीगान है। वे आत्माके सोलह आने कब्जेमे जो है । इसीलिये कुछ कर नही सकते । यहाँ तो "आ फंसे"वाली हालत है। असलमे राग-द्वेषके खत्म होते ही 1