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पृष्ठ:गुप्त-धन 2.pdf/२२

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गुप्त धन
 

हुई मैं उस मण्डी की सैर कर रही थी। शाम का वक्त था, नीचे सड़क पर आदमियों की ऐसी भीड़ थी कि कंधे से कधा छिलता था। आज सावन का मेला था, लोग साफ-सुथरे कपड़े पहने कतार की कतार दरिया की तरफ जा रहे थे। हमारे बाजार की बेशकीमत जिन्स भी आज नदी के किनारे सजी हुई थी। कही हसीनों के झूले थे, कही सावन के गीत, लेकिन मुझे इस बाजार की सैर दरिया के किनारे से ज्यादा पुरलुत्फ मालूम होती थी। ऐसा मालूम होता था कि शहर की और सब सड़के बन्द हो गयी हैं, सिर्फ यही तग गली खुली हुई है और सब की निगाहें कोठों ही की तरफ लगी थी, गोया वह जमीन पर नहीं चल रहे है, हवा में उड़ना चाहते है। हाँ, पढेलिखे लोगो को मैने इतना बेधडक नहीं पाया। वह भी घूरते थे मगर कनखियो से। अधेड़ उम्र के लोग सबसे ज्यादा बेधडक मालूम होते थे। शायद उनकी मशा जवानी के जोश को जाहिर करना था। बाजार क्या था एक लम्बा-चौडा थियेटर था, लोग हँसी-दिल्लगी करते थे, लुत्फ उठाने के लिए नही, हसीनों को सुनाने के लिए। मुंह दूसरी तरफ था, निगाह किसी दूसरी तरफ। बस, भाँड़ों और नक्कालों को मजलिस थी।

यकायक सईद की फिटन नजर आयी। मैं उस पर कई बार सैर कर चुकी थी। सईद अच्छे कपडे पहने अकड़ा हुआ बैठा था। ऐसा सजीला, बाँका जवान सारे शहर मे न था, चेहरे-मोहरे से मर्दानापन बरसता था। उसकी आँख एक बार मेरे कोठे की तरफ उठी और नीचे झुक गयी। उसके चेहरे पर मुर्दनी-सी छा गयी जैसे किसी जहरीले साँप ने काट खाया हो। उसने कोचवान से कुछ कहा, दम के दम में फिटन हवा हो गयी। इस वक्त उसे देखकर मुझे जो द्वेषपूर्ण प्रसन्नता हुई, उसके सामने उस जानलेवा दर्द की कोई हकीक़त न थी। मैने जलील होकर उसे जलील कर दिया। यह कटार कमचियो से कहीं ज्यादा तेज थी। उसकी हिम्मत न थी कि अब मुझसे आँख मिला सके। नहीं, मैने उसे हरा दिया, उसे उम्र भर के लिए कैद मे डाल दिया। इस कालकोठरी से अब उसका निकलना गैर-मुमकिन था क्योंकि उसे अपने खानदान के बड़प्पन का घमण्ड था।

दूसरे दिन भोर मे खबर मिली कि किसी कातिल ने मिर्जा सईद का काम तमाम कर दिया। उसकी लाश उसी बागीचे के गोल कमरे मे मिली। सीने में गोली लग गयी थी। नौ बजे दूसरी खबर सुनायी दी, जरीना को भी किसी ने रात के वक्त कत्ल कर डाला था। उसका सर तन से जुदा कर दिया गया था। बाद को जाँच-पड़ताल से मालूम हुआ कि यह दोनो वारदातें सईद के ही हाथों हुई। उसने पहले जरीना को