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पृष्ठ:गुप्त-धन 2.pdf/३३

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होली की छुट्टी
३७
 

मेरी तरफ झपटा कि मैं काँप गया और जूते हाथ से छूटकर जमीन पर गिर पडे। और उसी वक्त मैने डरी हुई आवाज मे पुकारा—अरे खेत मे कोई है, देखो यह कुत्ता मुझे काट रहा है। ओ महतो, देखो तुम्हारा कुत्ता मुझे काट रहा है।

जवाब मिला, कौन है?

'मै हूँ राहगीर, तुम्हारा कुत्ता मुझे काट रहा है।'

'नही, काटेगा नही, डरो मत। कहाँ जाना है?'

'महमूदनगर।

'महमूदनगर का रास्ता तो तुम पीछे छोड़ आये, आगे तो नदी है।'

मेरा कलेजा बैठ गया, रुऑसा होकर बोला—महमूदनगर का रास्ता कितनी दूर छूट गया है?

'यही कोई तीन मील।'

और एक लहीम-शहीम आदमी हाथ मे लालटेन लिये हुए आकर मेरे सामने खडा हो गया। सर पर हैट था, एक मोटा फौजी ओवरकोट पहने हुए, नीचे निकर, पॉव मे फुलबूट, बड़ा लबा-तडगा, बड़ी बड़ी मूंछे, गोरा रग, साकार पुरुष-सौन्दर्य। बोला—तुम तो कोई स्कूल के लड़के मालूम होते हो।

'लडका तो नही हूँ, लड़कों का मुदर्रिस हूँ, घर जा रहा हूँ। आज से तीन दिन छुट्टी है।'

'तो रेल से क्यो नही गये?'

'रेल छूट गयी और दूसरी एक बजे छूटती है।'

'वह अभी तुम्हे मिल जायगी। बारह का अमल है। चलो मै स्टेशन का रास्ता दिखा दूं।'

'कौन-से स्टेशन का?'

'भगवन्तपुर का।'

'भगवन्तपुर ही से तो मैं चला हूँ। वह बहुत पीछे छूट गया होगा।'

"बिलकुल नही, तुम भगवन्तपुर स्टेशन से एक मील के अन्दर खडे हो। चलो मै तुम्हे स्टेशन का रास्ता दिखा दूं। अभी गाड़ी मिल जायगी। लेकिन रहना चाहो तो मेरे झोपड़े में लेट जाओ। कल चले जाना।'

अपने ऊपर गुस्सा आया कि सर पीट लू। पाँच बजे से तेली के बैल की तरह घूम रहा हूँ और अभी भगवन्तपुर से कुल एक मील आया हूँ। रास्ता भूल गया।