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पृष्ठ:गुप्त-धन 2.pdf/३४

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गुप्त धन
 

यह घटना भी याद रहेगी कि चला छः घण्टे और तय किया एक मील। घर पहुँचने की धुन जैसे और भी दहक उठी।

बोला—नही, कल तो होली है। मुझे रात को पहुँच जाना चाहिए।

'मगर रास्ता पहाड़ी है, ऐसा न हो कोई जानवर मिल जाय। अच्छा चलो, मैं तुम्हे पहुँचाये देता हूँ, मगर तुमने बड़ी गलती की, अनजान रास्ते में रात को पैदल चलना कितना खतरनाक है। अच्छा चलो मैं पहुंचाये देता हूँ। खैर यहीं खड़े रहो, मै अभी आता हूँ।'

कुत्ता दुम हिलाने लगा और मुझसे दोस्ती करने का इच्छुक जान पडा। दुम हिलाता हुआ, सिर झुकाये क्षमा याचना के रूप में मेरे सामने आकर खड़ा हुआ। मैंने भी बड़ी उदारता से उसका अपराध क्षमा कर दिया और उसके सिर पर हाथ फेरने लगा। क्षण भर मे वह आदमी बन्दूक कधे पर रखे आ गया और बोला—चलो, मगर अब ऐसी नादानी न करना, खैरियत हुई कि मै तुम्हें मिल गया। नदी पर पहुंच जाते तो जरूर किसी जानवर से मुठभेड हो जाती।

मैंने पूछा—आप तो कोई अग्रेज मालूम होते है, मगर आपकी बोली बिल-कुल हमारे जैसी है?

उसने हँसकर कहा—हाँ, मेरा बाप अंग्रेज था, फ़ौजी अफ़सर। मेरी उम्र यहीं गुजरी है। मेरी माँ उसका खाना पकाती थी। मैं भी फ़ौज में रह चुका हूँ। योरोप की लडाई मे गया था, अब पेंशन पाता हूँ। लड़ाई मे मैने जो दृश्य अपने आँखों से देखे और जिन हालात में मुझे जिन्दगी बसर करनी पड़ी और मुझे अपनी इन्सानियत का जितना खून करना पड़ा उनसे इस पेशे से मुझे नफ़रत हो गयी और मैं पेंशन लेकर यहाँ चला आया। मेरे पापा ने यहीं एक छोटा-सा घर बना लिया था। मैं यही रहता हूँ और आस-पास के खेतों की रखवाली करता हूँ। यह गंगा की घाटी है। चारों तरफ पहाड़ियाँ हैं। जगली जानवर बहुत लगते हैं। सुअर, नीलगाय, हिरन सारी खेती बर्बाद कर देते हैं। मेरा काम है, जानवरों से खेती की हिफाजत करना। किसानों से मुझे हल पीछे एक मन गल्ला मिल जाता है। वह मेरे गुजर-बसर के लिए काफ़ी होता है। मेरी बुढ़िया माँ अभी जिन्दा है। जिस तरह पापा का खाना पकाती थी, उसी तरह अब मेरा खाना पकाती है। कभी-कभी मेरे पास आया करो, मैं तुम्हे कसरत करना सिखा दूंगा, साल भर में पहलवान हो जाओगे।

मैंने पूछा—आप अभी तक कसरत करते हैं ?