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पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/७३३

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गुप्त-निवन्धावली स्फुट-कविता --- - मारामार हुई दिनधाड़े, पर कुछ भी नहिं आया आड़े, छोड़ चले शाइस्ताखानी ! बूढ़ेपनकी लाज न आई, लड़कोंसे की खूब लड़ाई, कुछ नहीं सोचा बात बढ़ाई, इसी सबबसे मुंहकी खाई, छोड़ चले शाइस्ताखानी ! सुनी उदय पटनीकी लीला, किया मालीने तब ढोला, चला न कुछ भी वां पे हीला, आखिरको मुँह हो गया पीला, छोड़ चले शाइस्तावानी ! गये आगरे थे बुलवाये, जैसे गये न वैसे आये, बिगड़े कर्जनके बहकाये, आकर यह मब फूल खिलाये, छोड़ चले शाइस्ताखानी ! अपनी अकल काममें लाते, तो क्यों यह सब शर्म उठाते, काहे दुनिया को हँसवाते, ऐसे छोड़ न घर को जाते, छोड़ चले शाइस्ताखानी ! भूल गये थे तुम कृस्तानी, करते थे अपनी मनमानी, [ ७१६ ]