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पृष्ठ:गोदान.pdf/३५२

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352: प्रेमचंद रचनावली-6
 

हैं। पागल वही नहीं है जो किसी को काटने दौड़े। आम आदमी जो व्यवहार करते हों उसके विरुद्ध व्यवहार करना भी पागलपन है।

—तुम दोनों खुद पागल हो।

—इसका फैसला तो डॉक्टर करेगा।

—मैंने बीसों पुस्तकें लिख डालीं, हजारों व्याख्यान दे डाले, यह पागलों का काम है?

—जी हां, यह पक्के सिरफिरों का काम है। कल ही आप इस घर में रस्सियों से बांध लिये जायेंगे।

—तुम मेरे घर से निकल जाओ, नहीं तो मैं गोली मार दूंगा।

—बिल्कुल पागलों की-सी धमकी। सन्तकुमार उस दर्खास्त में यह भी लिख देना कि आपकी बंदूक छीन ली जाय, वरना जान का खतरा है।

और दोनों मित्र उठ खड़े हुए। देवकुमार कभी कानून के जाल में न फंसे थे। प्रकाशकों और बुकसेलरों ने उन्हें बारहा धोखे दिए, मगर उन्होंने कभी कानून की शरण न ली। उनके जीवन की नीति थी—आप भला तो जग भला, और उन्होंने हमेशा इस नीति का पालन किया था। मगर वह दब्बू या डरपोक न थे। खासकर सिद्धांत के मुआमले में तो वह समझौता करना जानते ही न थे। वह इस षड्यंत्र में कभी शरीक न होंगे, चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय। मगर क्या यह सब सचमुच उन्हें पागल साबित कर देंगे? जिस दृढ़ता से सिन्हा ने धमकी दी थी, वह उपेक्षा के योग्य न थी। उसकी ध्वनि से तो ऐसा मालूम होता था कि वह इस तरह के दांव-पेंच में अभ्यस्त है, और शायद डाॅक्टरों को मिलाकर सचमुच उन्हें सनकी साबित कर दे। उनका आत्माभिमान गरज उठा—नहीं, वह असत्य की शरण न लेंगे चाहे इसके लिए उन्हें कुछ भी सहना पड़े। डाॅक्टर भी क्या अंधा है? उनसे कुछ पूछेगा, कुछ बातचीत करेगा या योंही कलम उठाकर उन्हें पागल लिख देगा। मगर कहीं ऐसा तो नहीं है कि उनके होश-हवास में फितूर पड़ गया हो। हुश! वह भी इन छोकरों की बातों में आए जाते हैं। उन्हें अपने व्यवहार में कोई अंतर नहीं दिखाई देता। उनकी बुद्धि सूर्य के प्रकाश की भांति निर्मल है। कभी नहीं। वह इन लौंडों के धौंस में न आयंगे।

लेकिन यह विचार उनके हृदय को मथ रहा था कि सन्तकुमार की यह मनोवृत्ति कैसे हो गई। उन्हें अपने पिता की याद आती थी। वह कितने सौम्य, कितने सत्यनिष्ठ थे। उनके ससुर वकील जरूर थे, पर कितने धर्मात्मा पुरुष थे। अकेले कमाते थे और सारी गृहस्थी का पालन करते थे। पांच भाइयों और उनके बाल-बच्चों का बोझा खुद संभाले हुए थे। क्या मजाल कि अपने बेटे-बेटियों के साथ उन्होंने किसी तरह का पक्षपात किया हो। जब तक बड़े भाई को भोजन न करा लें खुद न खाते थे। ऐसे खानदान में सन्तकुमार जैसा दगाबाज कहां से धंस पड़ा? उन्हें कभी ऐसी कोई बात याद न आती थी जब उन्होंने अपनी नीयत बिगाड़ी हो।

लेकिन यह बदनामी कैसे सही जायगी। वह अपने ही घर में जब जागृति न ला सके ताे एक प्रकार से उनका सारा जीवन नष्ट हो गया। जो लोग उनके निकटतम संसर्ग में थे, जब उन्हें वह आदमी न बना सके तो जीवन-पर्यन्त की साहित्य-सेवा से किसका कल्याण हुआ? और जब यह मुकदमा दायर होगा उस वक्त वह किसे मुंह दिखा सकेंगे? उन्होंने धन न कमाया, पर यश तो संचय किया ही। क्या वह भी उनके हाथ से छिन जाएगा? उनको अपने संतोष के लिए इतना भी न मिलेगा ऐसी आत्मवेदना उन्हें कभी न हुई थी।