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मंगलसूत्र : 353
 


शैव्या से कहकर वह उसे भी क्यों दुखी करें? उसके कोमल हृदय को क्यों चोट पहुंचावे? वह सब कुछ खुद झेल लेंगे। और दुखी होने की बात भी क्यों हो? जीवन तो अनुभूतियों का नाम है। यह भी एक अनुभव होगा। जरा इसकी भी सैर कर लें।

यह भाव आते ही उनका मन हल्का हो गया। घर में जाकर पंकजा में चाय बनाने को कहा।

शैव्या ने पूछा—सन्तकुमार क्या कहता था?

उन्होंने सहज मुस्कान के साथ कहा—कुछ नहीं, वही पुराना खव्त।

—तुमने तो हामी नहीं भरी न?

देवकुमार स्त्री से एकात्मता का अनुभव करके बोले—कभी नहीं।

—न जाने इसके सिर यह भूत कैसे सवार हो गया।

—सामाजिक संस्कार हैं और क्या?

—इसके यह संस्कार क्यों ऐसे हो गए? साधु भी तो है, पंकजा भी तो हैं, दुनिया में क्या धर्म ही नहीं?

—मगर कसरत ऐसे ही आदमियों को है, यह समझ लो।

उस दिन से देवकुमार ने सैर करने जाना छोड़ दिया। दिन-रात घर में मुंह छिपाए बैठे रहते। जैसे सारा कलंक उनके माथे पर लगा हो। नगर और प्रांत के सभी प्रतिष्ठित, विचारवान आदमियों से उनका दोस्ताना था, सब उनकी सज्जनता का आदर करते थे। मानो वह मुकदमा दायर होने पर भी शायद कुछ न कहेंगे। लेकिन उनके अतर में जैसे चोर-सा बैटा हुआ था। वह अपने अहंकार में अपने को आत्मीयों की भलाई-बुराई का जिम्मेदार समझते थे। पिछले दिनों जब सूर्यग्रहण के अवसर पर साधुकुमार ने नदी हुई नदी में कूदकर एक डूबते हुए आदमी की जान बचाई थी, उस वक्त उन्हें उससे कहीं ज्यादा खुशी हुई थी जितनी खुद सारा यश पाने से होती। उनकी आंखों में आंसू भर आए थे, ऐसा लगा था मानो उनका मस्तक कुछ ऊंचा हो गया है, मानो मुख पर तेज आ गया है। वही लाेग जब सन्तकुमार की चितकवरी आलोचना करेंगे तो वह कैसे सुनेंगे?

इस तरह एक महीना गुजर गया और सन्तकुमार ने मुकदमा दायर-किया। उधर सिविल सर्जन को गांठना था, इधर मि° मलिक को शहादतें भी तैयार करनी थीं। इन्हीं तैयारियों में सारा दिन गुजर जाता था। और रूपये का इंतजाम भी करना ही था। देवकुमार सहयोग करते तो यह सबसे बड़ी बाधा हट जाती। पर उनके विरोध ने समस्या को और जटिल कर दिया था। सन्तकुमार कभी-कभी निराश हो जाता। कुछ समझ में न आता क्या करे। दोनों मित्र देवकुमार पर दांत पीस-पीसकर रह जाते।

सन्तकुमार कहता—जी चाहता है इन्हें गोली मार दूं। मैं इन्हें अपना बाप नहीं, शत्रु समझता हूँ।

सिन्हा समझाता—मेरे दिल में तो भई, उनकी इज्जत होती है। अपने स्वार्थ के लिए आदमी नीचे से नीचा काम कर बैठता है, पर त्यागियों और सत्यवादियों का आदर ताे दिल में होता ही है। न जाने तुम्हें उन पर कैसे गुस्सा आता है। जो व्यक्ति सत्य के लिए बड़े से बड़ा कष्ट सहने को तैयार हो वह पूजने के लायक है।

—ऐसी बातों से मेरा जी न जलाओ सिन्हा! तुम चाहते तो वह हजरत अब तक पागलखाने