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गोदान : 91
 

मगर इस उलटफेर के समर्थन के लिए उनके पास ऐसी दलीलें थीं कि कोई उंगली न दिखा सकता था। शहर के सभी रईस, सभी हुक्काम, सभी अमीरों से उनका याराना था। दिल में चाहे लोग उनकी नीति पसंद न करें, पर वह स्वभाव के इतने नम्र थे कि कोई मुंह पर कुछ न कह सकता था।

मिर्जा खुर्शेद ने रूमाल से माथे का पसीना पोंछकर कहा—आज तो शिकार खेलने के लायक दिन नहीं है। आज तो कोई मुशायरा होना चाहिए था।

वकील ने समर्थन किया—जी हां, वहीं बाग में। बड़ी बहार रहेगी।

थोड़ी देर के बाद मिस्टर तंखा ने मामले की बात छेड़ी।

'अबकी चुनाव में बड़े-बड़े गुल खिलेंगे। आपके लिए भी मुश्किल है।'

मिर्जा विरक्त मन से बोले—अबकी मैं खड़ा ही न हूंगा।

तंखा ने पूछा—क्यों?

'मुफ्त की बकबक कौन करे? फायदा ही क्या। मुझे अब इस डेमाँक्रेसी में भक्ति नहीं रही। जरा-सा काम और महीनों की बहस। हां, जनता की आंखों में धूल झोंकने के लिए अच्छा स्वांग है। इससे तो कहीं अच्छा है कि एक गवर्नर रहे, चाहे वह हिन्दुस्तानी हो, या अंग्रेज, इससे बहस नहीं। एक इंजिन जिस गाड़ी को बड़े मजे से हजारों मील खींच ले जा सकता है, उसे दस हजार आदमी मिलकर भी उतनी तेजी से नहीं खींच सकते। मैं तो यह सारा तमाशा देखकर कौंसिल से बेजार हो गया हूं। मेरा बस चले, तो कौंसिल में आग लगा दूं। जिसे हम डेमाँक्रेसी कहते हैं, वह व्यवहार में बड़े-बड़े व्यापारियों और जमींदारों का राज्य है, और कुछ नहीं। चुनाव में ही बाजी ले जाता है, जिसके पास रुपये हैं। रुपये के जोर से उसके लिए सभी सुविधाएं तैयार हो जाती हैं। बड़े-बड़े पंडित, बड़े-बड़े मौलवी, बड़े-बड़े लिखने और बोलने वाले, जो अपनी जबान और कलम से पब्लिक को जिस तरफ चाहें फेर दें, सभी सोने के देवता के पैरों पर माथा रगड़ते हैं, मैंने तो इरादा कर लिया है, अब इलेक्शन के पास न जाऊंगा। मेरा प्रोपेंगडा अब डेमाँक्रेसी के खिलाफ होगा।'

मिर्जा साहब कुरान की आयतों से सिद्ध किया कि पुराने जमाने के बादशाहों के आदर्श कितने ऊंचे थे। आज तो हम उसकी तरफ ताक भी नहीं सकते। हमारी आंखों में चकाचौंध आ जायगी। बादशाह को खजाने की एक कौड़ी भी निजी खर्च में लाने का अधिकार न था। वह किताबें नकल करके, कपड़े सीकर, लड़कों को पढ़ाकर अपना गुजर करता था। मिर्जा ने आदर्श महीपों की एक लंबी सूची गिना दी। कहां तो वह प्रजा को पालने वाला बादशाह, और कहां आजकल के मंत्री और मिनिस्टर, पांच, छ:, सात, आठ हजार माहवार मिलना चाहिए। यह लूट है या डेमाँक्रेसी।

हिरनों का झुंड चरता हुआ नजर आया। मिर्जा के मुख पर शिकार का जोश चमक उठा। बंदूक संभाली और निशाना मारा। एक काला-सा हिरन गिर पड़ा। वह मारा। इस उन्मत्त ध्वनि के साथ मिर्जा भी बेतहाशा दौड़े-बिलकुल बच्चों की तरह उछलते कूदते, तालियां बजाते।

समीप ही एक वृक्ष पर एक आदमी लकड़ियां काट रहा था। वह भी चट-पट वृक्ष उतरकर मिर्जाजी के साथ दौड़ा। हिरन की गर्दन में गोली लगी थी, उसके पैरों में कंपन हो रहा था और आंखें पथरा गई थीं।

लकड़हारे ने हिरन को करुण नेत्रों से देखकर कहा—अच्छा पट्ठा था, मन-भर से कम