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92 : प्रेमचंद रचनावली-6
 

न होगा। हुकुम हो, तो मैं उठाकर पहुंचा दूं?

मिर्जा कुछ बोले नहीं। हिरन की टंगी हुई, दीन, वेदना से भरी आंखें देख रहे थे। अभी एक मिनट पहले इसमें जीवन था। जरा-सा पत्ता भी खड़कता, तो कान खड़े करके चौकड़ियां भरता हुआ निकल भागता। अपने मित्रों और बाल-बच्चों के साथ ईश्वर की उगाई हुई घास खा रहा था, मगर अब निस्पंद पड़ा है। उसकी खाल उधेड़लो, उसकी बोटियां कर डालो, उसका कीमा बना डालो, उसे खबर भी न होगी। उसके क्रीड़ामय जीवन में जो आकर्षण था, जो आनंद था, वह क्या इस निर्जीव शव में है? कितनी सुंदर गठन थी, कितनी प्यारी आंखें, कितनी मनोहर छवि। उसकी छलांगें हृदय में आनंद की तरंगें पैदा कर देती थीं, उसकी चौकड़ियों के साथ हमारा मन भी चौकड़ियां भरने लगता था। उसकी स्फूर्ति जीवन-सा बिखेरती चलती थी, जैसे फूल सुगंध बिखेरता है, लेकिन अब! उसे देखकर ग्लानि होती है।

लकड़हारे ने पूछा—कहां पहुंचाना होगा मालिक? मुझे भी दो-चार पैसे दे देना।

मिर्जाजी जैसे ध्यान से चौंक पड़े। बोले—अच्छा, उठा ले! कहां चलेगा?

'जहां हुकुम हो मालिक।'

'नहीं, जहां तेरी इच्छा हो, वहां ले जा। मैं तुझे देता हूं।"

लकड़हारे ने मिर्जा की ओर कौतूहल से देखा। कानों पर विश्वास न आया।

'अरे नहीं मालिक, हुजूर ने सिकार किया है, तो हम कैसे खा लें।'

'नहीं-नहीं, मैं खुशी से कहता हूं, तुम इसे ले जाओ। तुम्हारा घर यहां से कितनी दूर है?'

'कोई आधा कोस होगा मालिक।"

'तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगा। देखूंगा, तुम्हारे बाल-बच्चे कैसे खुश होते हैं।'

'ऐसे तो मैं न ले जाऊंगा सरकार। आप इतनी दूर से आए, इस कड़ी धूप में सिकार किया, मैं कैसे उठा ले जाऊं?'

'उठा उठा, देर न कर। मुझे मालूम हो गया, तू भला आदमी है।'

लकड़हारे ने डरते-डरते और रह-रहकर मिर्जाजी के मुख की ओर सशंक नेत्रों से देखते हुए कि कहीं बिगड़न जायं, हिरन को उठाया। सहसा उसने हिरन को छोड़ दिया और खड़ा होकर बोला—मैं समझ गया मालिक, हुजूर ने इसकी हलाली नहीं की।

मिर्जाजी ने हंसकर कहा-बस-बस, तूने खूब समझा। अब उठा ले और घर चल।

मिर्जाजी धर्म के इतने पाबंद न थे। दस साल से उन्होंने नमाज न पढ़ी थी। दो महीने में एक दिन व्रत रख लेते थे। बिल्कुल निराहर, निर्जल, मगर लकड़हारे को इस खयाल से जो संतोष हुआ था कि हिरन अब इन लोगों के लिए अखाद्य हो गया है, उसे फीका न करना चाहते थे।

लकड़हारे ने हल्के मन से हिरन को गर्दन पर रख लिया और घर की ओर चला। तंखा अभी तक तटस्थ से वहीं पेड़ के नीचे खड़े थे। धूप में हिरन के पास जाने का कष्ट क्यों उठाते? कुछ समझ में न आ रहा था कि मुआमला क्या है, लेकिन जब लकड़हारे को उल्टी दिशा में जाते देखा, तो आकर मिर्जा से बोले—आप उधर कहां जा रहे हैं हजरत। क्या रास्ता भूल गए?

मिर्जा ने अपराधी भाव से मुस्कराकर कहा—मैंने शिकार इस गरीब आदमी को दे दिया। अब ज़रा इसके घर चल रहा हूं। आप भी आइए ना