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पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/३३

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जगद्विनोद। (३३) पुनर्यथा-सर्वथा ॥ साहसहू न कहूं सख आपनोभाषे बनै न बनै बिन भाखें । त्यों पदमाकर यो मगमें रँग देखतहौं कबकी रुखराब ॥ वा विधि सांवरे रावरे कीन मिले मरजीनमजानमजावें। बोलातिबानिबिलोकनिप्रीतिकी वो मनवेनरहीं अबआई ॥ दोहा--गन्यो न गाकुल कुल घनो, रमण रावरे हेत । सु तुम चोरि चितचोर लौं, भोर देखाई देत ॥६६॥ गणिका खंडिता ॥ कवित्त-गोस पेंच कुण्डल कलंगी शिर पेंच पेंच, पेंचन ते खेचि बिन बेचे बारि आये हो। कहै पदमाकर कहां वा मूरि जीवन की, जाकी पगधूरी पगरीपै पारि आये हौ ॥ वेगुनके सार ऐसे वेगुनके हार अब, मेरी मनुहारी की न याहि घरि आये हो। पांसासार खेली वित कोन मनुहारिनसों, जित मनुहारि मनुहारि हार आये हो॥६७॥ दोहा-बगे साह लगि हमकरी, तुमसौं प्रीति बिचारि । कहा जानि तुम करतहो, हमैं ओर की नारि ॥६८॥ कलहां तारिताका लक्षण ॥ दोहा-प्रथम कछूअपमानकरि, पियकोफिरिपछिताय । कलहांतरिता नायका, ताहि कहत कविराय ॥६९॥ ३