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वर्ण-भेद और संगठन


शक्ति मिल जाती है और दूसरे को इस के अभाव के कारण भाग जाना पड़ता है।

यदि आप इस पर तनिक और विचार करेंगे और पूड़ेंगे कि सिक्ख और मुसलमान को किस कारण अपने पर इतना भरोसा रहता है और सहायता तथा बचाव के सम्बन्ध में हिन्दू क्यों इतना हताश रहता है, तो आप को इस का कारण उन के रहन-सहन की सङ्घबद्ध रीति में देख पड़ेगा। सिक्खों और मुसल- मानों के मिलकर रहने-सहने की रीति ऐसी है जिससे उनमें सहा- नुभूति पैदा होती है । हिन्दुओं के रहन-सहन की रीति ऐसी नहीं । सिक्खों और मुसलमानों का सामाजिक बन्धन ऐसा है, जो उनको भाई बनाता है । हिन्दुओं में ऐसा कोई सामाजिक बन्धन नहीं है। इस से एक हिन्दू दूसरे हिन्दू को अपना भाई नहीं समझता है । यही कारण है कि एक सिक्ख या एक खालसा अपने को सवा लाख मनुष्यों के बराबर समझता और कहता है। यही कारण है कि एक मुसलमान हिन्दुओं की एक बड़ी भीड़ के बराबर है। दोनों में इस अन्तर का कारण निस्सन्देह हिन्दुओं का वर्णा-भेद है। जब तक वर्ण-भेद है, तब तक कोई सङ्गठन नहीं हो सकता और जब तक सङ्गठन नहीं, तब तक हिन्दू दुर्बल और दब्बू ही बने रहेंगे।

हिन्दू अभिमान के साथ कहते हैं कि हम बड़े सहिष्णु और उदार-चेता है। मेरी सम्मति में यह भूल है । कई अवसरों पर वे असहिष्णु और अनुदार हो जाते हैं। यदि किसी अवसर पर वे सहिष्णु होते हैं, तो इस का कारण यह होता है कि वे इतने दुर्बल होते हैं या इतने उदासीन होते हैं कि विरोध नहीं कर सकते । यह उदासीनता हिन्दुओं की प्रकृति का इतना अधिक अंश बन चुकी है कि हिन्दू अपमान और अत्याचार को भी