सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:जातिवाद का उच्छेद - भीम राव अंबेडकर.pdf/५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४६
जातिभेद का उच्छेद


चुपके से सहन कर लेता है । अप उन में, श्रीयुत मारिस के शब्दों में, बड़ों को छोटों को रौंदते, सबलों को निर्बलों को पीटते, क्रूरों को किसी से न डरते, दयालुओं को साहस न करते और बुद्धि- मानों को परवा न करते हुए पाते हैं । सभी हिन्दू देवताओं के क्षमाशील होते हुए भी हिन्दु में दलितों और अत्याचार- पीड़ितों के दयनीय दशा किसी से छिपी नहीं । उदासीनता से बढ़कर बुरा और कोई रोग नहीं हो सकता। हिन्दू इतने उदासीन क्यों हैं ? मेरी राय में यह उदासीनता वर्ण-भेद का ही परिणाम है। वर्ण-भेद ने किसी अच्छे काम के लिए भी सङ्गठन और सहयोग को असम्भव बना दिया है।

[ १६ ]

वर्णभेद और आचार-शास्त्र

हिन्दुओं के आचार-शास्त्र पर वर्ण-भेद का प्रभाव बहुत खेदजनक हुआ है। वर्ण-भेद ने सार्वजनिक भाव को मार डाला है। वर्ण-भेद ने सार्वजनिक वदान्यता के भाव को नष्ट कर दिया है । वर्ण-भेद ने लोक-मत को असम्भव बना दिया है। एक हिन्दू की जनता उस का अपना वर्ग ही है । उस का उत्तरदायित्व उस के अपने ही वर्ग के प्रति है। उस की भक्ति उस के अपने व तक ही परिमित है। वर्ग-भेद ने सद्गुण को दबा दिया है और सदाचार को जकड़ दिया है । पात्र के लिए कोई सहानुभूति नहीं रही । गुणी के गुणों की कोई प्रशंसा नहीं । भूखे को दान नहीं दिया जाता। किसी को कष्ट में देख कर उस की सहायता का भाव नहीं उत्पन्न होता । दान होतो जरूर है, परन्तु वह अपने ही वर्ण से आरम्भ होकर अपने ही वर्ण के साथ समाप्त हो जाता है। सहानुभूति है, परन्तु दूसरे वर्णों के