सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/२०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पवित्रता १६५ हल चलाता चलाता किसान रह गया। बकरी भैंस चराता चराता-वह और कोई भी उसो तरह लीन हुआ। जूते गांठता गांठता एक और कोई दे मरा। भोग-विलास को चोजें पास पड़ी हैं। ऊँचे महलों से निकल, सुनहरे पलंगों से गिर वह रेत में कौन लोट गया ! सिर से ताज उतार नंगे सिर नंगे पाँव यह अलख कौन जगाता फिरता है ! मोर-मुकुट उतार सिर पर काँटे धरे शूली को नंगो धार पर वह मोठी नींद कौन सा राम का लाड़ला सोता है ? तारों को तरह कभी मैं 'टूटा और कभी तू टूटा ! कभी इसकी बारी और कभी उसकी बारी आई। मीराबाई ब्रह्मकांति का अमूल्य चिह्न हो गई। गार्गी ने ब्रह्मकांति की लाट को अपनी आँख में धारण किया। वेद ने ब्रह्मकांति के दर्शनरूप को अपनी आँख में ले लिया। हाय ! ब्रह्मकांति के अनंत प्रकाश में भी मेरे लिये अंधेरा हुआ! अत्यंत अत्याचार है-गाजल तो हो शीतल, परंतु मेरा मन अपवित्रता के भावों से भरा हुआ मार्गशीर्ष और पौष की ठंढी रातों में भी अपने काले काले संकल्प के नागों से डसा हुआ जल रहा हो, तड़प रहा हो! अपवित्रता का पर्दा जब थांख पर आ जाय तो भला किस तरह देखे कोई ? हिमालय की बर्फ हो शुद्ध सफेद और मेरा मन काला! हरी हरी घास भी हो नरम और मेरा दिल हो कठोर ! पत्थर, रेत, कुश, जल ये भी हों पवित्र, पर इन जैसी भी न हो मेरी स्थिति ! फूल भी हो सुगंधित, मिट्टी भा हो सुगंधित, पर मेरे नेत्र और