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पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/२०६

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निबंध-रत्नावली

वाणी और अन्य अंग हों दुर्गधित ? पत्थरों के पहाड़, घासों के जंगल, पानी के झरनों को देखकर तो महर्षि भी बोल उठे “सर्व खल्विदं ब्रह्म' पर मुझे देख उनको भी कभी कभी शक हो जाय और प्रशन उनके हृदय में भी उठे कि ब्रह्म को कैसे भूल गया ?

ऐसे कैसे निभेगी-हाय मुझमें यह अपवित्रता कहाँ से आ गई ! क्यों आ गई ? ब्रह्म को भी कलंकित कर रही है। ब्रह्मकांति की अटल शोभा को भी एक जरा से बादल ने ढाँप दिया। एक मोतियाबिंद के दाने ने गुप्त कर दिया । अपवित्रता को आँखों में रख कैसे हो सकता है वह विद्यादर्शन ? कैसे सफल हो मनुष्यजन्म ? राजदुलारे ! अहो क्या हुआ कि सारी की सारी सलतनत छूट गई, दर दर गली गली धक्के खाता हूँ; कोई लात मारता है, कोई ढेला, कभी यहाँ चोट लगती है, कभी वहाँ, कभी इस रोग ने मारा, कभी उस रोग ने मारा; सारा दिन और सारी रात रोग के पलँग पर भी पड़ा रहना क्या जीवन हुआ! मरने से पहले ही हजार बार मौत के डर से मरते रहना भी क्या जीवन है? सदा आशा तृष्णा के जाल में फड़क फड़क न जीना और न मरना, भला क्या सुख हुआ !

कौन सा कलियुग मेरे मन में भूत की तरह आ समाया है कि मुझे सब कुछ भुला दिया । खुश हो होकर जुआ खेलने लग गया। अपनी आत्मा को भी हार बैठा। अपनी आँखें आप