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पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/२६१

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संगीत


उस धुन से मस्त थे। यहाँ पर पंचगान के दो-तीन पद जरा ध्यान से सुन लीजिए। मैं मूल संस्कृत नहीं कहता, मथुरा के मारवाड़ी सेठ कन्हैयालाल पोद्दार के मधुर अनुवाद में से सुनाता हूँ-

गौ कृष्ण के मुख कढ्यो वह वेनु-गान-
पीयूष-पान करती जु उठाय कान ।
त्यों वत्स हू पय भरे स्तन-पास-छाँड़े
ठाड़े रहैं सु प्रभु को हिय राखि गाढ़े ॥
XXX
वंशी-ध्वनि सुनि नदी गति होत भग्ना
आवर्त-सूचित-मनोभव में निमग्ना ।
लै के तरंग भुज सों कमलोपहारु
गाढ़े गहैं सु हरि के पद-पद्म-चारु ॥
XXX
गौ-गोप-साथ रसरी धरि कै सु काँधै
वंशी बजात जब ही सुर सप्त साधै ।
रोमांग वृक्ष रु रहें चल जीव ठाड़े
हा! चित्र !! चेतन अचेतन भाव छोड़े।
XXX
दूर ते हि मृग-गौ-गन सारे, वेणु-नाद-हत-चित्त विचारे।
दाँत-पास-घरि कान लगावें, नैन मंदि सम-चित्र लखावें ॥