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पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/८०

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निबंध-रत्नावली


सक्त न थे। भगवद्भजन के साथ साथ भगवती अयोध्या के उद्धार की भी इन्हें चिंता थी । इसलिये कुश्ती लड़ना, हथियार बाँधना और समय पर अपने बचाने को मुसलमानों से लड़ना झगड़ना भी इनका कर्तव्य कार्य्य था।

यदि उस समय गुसाइँयों और वैरागियों में परस्पर ईर्ष्या और कलह की जगह प्रेम और सौहार्द होता तो ये लोग अपने किए हुए पुरुषार्थ के फल से वंचित न होते। यदि उस समय इन्हें सिक्ख गुरु गोविंदसिंह जैसा एक महाप्राण दूरदर्शी धर्म्मगुरु मिलता, तो ये लोग भी खाली भिखमंगे न होकर सिक्खों की तरह एक हिंदू रियासत का कारण होते । पर विधाता को यह स्वीकार न था। इसलिये दरिद्र भारत में इनके द्वारा भिक्षकों ही की संख्या-वृद्धि हुई। नवाब आसिफुद्दीला के दीवन राजा टिकैनराय ने उस समय इनको बहुत कुछ सहारा दिया था। शाही खर्च से उन्होंने गढ़ीनुमा छोटे छोटे दृढ़तर कई मंदिर भी बनवा दिए थे। प्रसिद मंदिर हनुमानगढ़ी भी इसी समय गढ़ी के आकार में हुआ था। नवांब वाजिदअली शाह के समय अयोध्या में सब मिलाकर तीस मंदिर तैयार हो गए और प्रति वर्ष इनकी संख्या बढ़ती ही चली जा रही है। परंतु अभी तक अयोध्या में गृहस्थों का निवास नहीं हुआ । गृहस्थों बिना पुरी कैसी ! तथापि अयोध्या की वाह्य शोभा दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही है, यह क्या कम आनंद की बात है?