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पृष्ठ:निर्मला.djvu/७९

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सातवाँ परिच्छेद

उस दिन से निर्मला का रङ्ग-ढङ्ग बदलने लगा। उसने अपने को कर्त्तव्य पर मिटा देने का निश्चय कर लिया। अब तक नैराश्य के सन्ताप में उसने कर्त्तव्य पर ध्यान ही न दिया था। उसके हृदय में विप्लव की ज्वाला सी दहकती रहती थी, जिसकी असह्य वेदना ने उसे संज्ञाहीन सा कर रक्खा था। अब उस वेदना का वेग शान्त होने लगा। उसे ज्ञान हुआ कि मेरे लिए जीवन में कोई आनन्द नहीं। उसका स्वप्न देख कर क्यों इस जीवन को नष्ट करूँ। संसार में सब के सब प्राणी सुख-सेज ही पर तो नहीं सोते? मैं भी उन्हीं अभागों में हूँ। मुझे भी विधाता ने दुख की गठरी ढोने के लिए चुना है। वह बोझ सिर से उतर नहीं सकता। उसे फेंकना भी चाहूँ, तो नहीं फेंक सकती।