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पृष्ठ:निर्मला.djvu/८०

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सातवां परिच्छेद
 

उस कठिन भार से चाहे आँखों में अँधेरा आ जाय,चाहे गर्दन टूटने लगे,चाहे पैर उठाना दुस्तर हो जाय;लेकिन वह गठरी ढोनी ही पड़ेगी। उम्र भर का क़दी कहाँ तक रोएगा? रोए भी तो कौन देखता है? किसे उस पर दया आती है? रोने से काम में हर्ज होने के कारण उसे और यातनाएँ ही तो सहनी पड़ती हैं!

दूसरे दिन वकील साहव कचहरी से आए तो देखा निर्मला की सहास्य मूर्ति अपने कमरे के द्वार पर खड़ी है। वह अनिन्द्य छबि देख कर उनकी आँखें तृप्त हो गई। आज बहुत दिनों के बाद उन्हें यह कमल खिला हुआ दिखाई दिया। कमरे में एक वड़ा सा आईना दीवार से लटका हुआ था। उस पर एक परदा पड़ा रहता था। आज उसका परदा उठा हुआ था। वकील साहब ने कमरे में कदम रक्खा, तो शीशे पर निगाह पड़ी। अपनी सूरत साफ-साफ दिखाई दी। उनके हृदय में चोट सी लग गई। दिन भर के परिश्रम से मुख की कान्ति मलिन हो गई थी, भाँति-भाँति के पौष्टिक पदार्थ खाने पर भी गालों की झुर्रियाँ साफ दिखाई दे रही थीं। तोंद कसी होने पर भी किसी मुंहजोर घोड़े की भाँति वाहर निकली हुई थी। आईने ही के सामने, किन्तु दूसरी ओर ताकती हुई निर्मला भी खड़ी थी। दोनों सूरतों में कितना अन्तर था-एक रत्न-जटित विशाल भवन था,दूसरा टूटा-फूटा खंडहर!वह उस आईने की ओर और न देख सके। अपनी यह हीनावस्था उनके लिए असह्य थी। वह आईने के सामने से हट