सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:पदुमावति.djvu/४०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१४५] सुधाकर-चन्द्रिका। २८५

धड

-

खादू खावे = खाय = खाद् (खादति) का लिङ में प्रथम-पुरुष का एक-वचन । बेगि = वेग = शीघ्र । निसतरऊँ = निमतर (निस्तरति) का लोट में उत्तम-पुरुष का एक-वचन ॥ सरग = स्वर्ग = आकाश। मौस = शीर्ष = शिर । धर = धरा शिर के नीचे का शरीर-भाग। धरती = धरित्री = पृथ्वौ। पेम-समुंद = प्रेम-समुद्र। कउडिया कपर्दिका = कौडौ। उठहिँ = उठद् (उत्तिष्ठते) का बहु-वचन । बुंद = विन्दु ॥ (राजा रत्न-सेन गज-पति से कहता है, कि) प्रेम का समुद्र ऐसा कठिन है, जहाँ न वार, न पार, न थाह है, अर्थात् उस के सौमा का पता-ही नहीं है, कि कहाँ तक है, और न उस को गम्भीरता-हौ किमी के मन में आतौ ॥ (सो) यदि दूस (प्रहि) (श्राप कहे समुद्र) में पड़ने से (परे) वह (प्रेम-समुद्र) गाध हो यदि (वा) अगाध हो ( परन्तु ) हृदय के हंस, अर्थात् प्राण, ( उम प्रेम-समुद्र को अवश्य ) तरे हैं, अर्थात् अवश्य तरेंगे, यह निश्चय है। हंस उड़ने में कभी थकते नहीं, चाहे तो दिन रात उडा करें; दूसो तात्पर्य से रत्न-सेन ने अपने प्राणों को हंस बनाया, कि ये चलने में थकने-वाले नहीं ; दूस लिये अवश्य ही प्रेम-समुद्र को तरेंगे। भारत में कथा है, कि एक वेर सब पक्षियों ने मिल कर हंस को अपना राजा बनाया ; इस पर वैश्य-पुत्रों के बहकाने से काक ने कहा, कि हंस में कौन गुण है, राजा होने के योग्य मैं हूँ। दूस विवाद पर काक और प्रधान हंस दोनों समुद्र के दूस पार से उस पार और विना विश्राम लिये उस पार से दूस पार पाने के लिये उडे। काक इधर से जाते-ही थक कर, समुद्र में गिर पडा, और हंस, विना विश्राम के दूस पार से उस पार चला गया, और उधर से दूस पार चला श्राया; राह में मृत-प्राय जल में पडे काक को भी पीठ पर लादे हुये चला आया । दूस से पचियों को निश्चय हो गया, कि हंस के उडने का वेग अमोघ है (भारत-कर्ण-पर्व, अध्याय ४१) ॥ (रत्न-सेन कहता है, कि मैं ) पद्मावती का भिखमंगा हूँ, अर्थात् मुझे जिस भिक्षा की इच्छा है, वह भिक्षा पद्मावती-हौ के पास है, इस लिये मैं दूसरे के द्वार पर भिक्षुक बन कर, उस भिक्षा को नहीं पा सकता; केवल पद्मावती-हौ के द्वार का भिक्षुक हूँ, (इस लिये संसार के सुख-साधन- सामग्रियों के लिये प्रधान जो रत्न, उन से भरा) समुद्र, और (परलोक-सुख को दात्री) गङ्गा, (दोनों) (मेरो) दृष्टि में नहीं पाते, (क्योंकि जिम रत्न का मैं भिक्षुक हूँ, वह दून दोनों के पास नहीं है) ॥ (मो) जिस (पद्मावती-रत्न ) के कारण गले में -