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पृष्ठ:पदुमावति.djvu/५३७

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१६७-१८] सुधाकर-चन्द्रिका । ४३१ डस लिया हो; यह तमाशा देख कर पद्मावती ने हँस दिया ॥ (और कहने लगी कि ) हम ने श्रा कर अच्छे देवता को मनाया (जो बोलता ही नहीं), जान पड़ता है कि सो गया है (फिर) कौन मेरी सेवा को माने, अर्थात् जड क्या समझे कि मैं ने कैसी उस की सेवा की। जिस को (बहुत ही बडा) मान कर श्राए, वही जब अपनी देह में सो गया, तो (दूसरा) कौन इच्छा को पूरा करे और दुःख को धोवे ॥ जिमी (नाऊ और श्रोझे) के शिर को पकड कर मखियाँ उठाती हैं, वही विकल हो कर कुछ हिलता ही नहौं (जानाँ काठ की मूर्ति हो गया है)। कोई जानता ही नहीं है कि कहाँ धड है और कहाँ जीव ; (कवि कहता है कि, अरे भाई, सब बौरहे हो कर) मुख से अंड बंड बोली बकते हैं ॥ १६७ ॥ चउपाई। ततखन एक सखी बिहँसानी। कउतुक एक न देखहु रानी ॥ पुरुब हार मढ जोगी छाए। न जनउँ कउन देस तइँ आए ॥ जनु उन्ह जोग तंत अब खेला। सिद्ध होइ निसरे सब चेला ॥ उन्ह मॅह एक गुरू जो कहावा । जनु गुड देइ काहू बउरावा ॥ कुर बतौस-उ लखन सा राता। दसएँ लखन कहइ एक बाता ॥ जानहुँ आहि गोपिचंद जोगी। कइ सो आहि भरथरी बिगी ॥ वह जो पिंगला कजरी-आरन । यह सो सिँघला दहुँ केहि कारन ॥ दोहा। यह मूरति यह मुदरा हम न देख अउधूत । जानहुँ होहिँ न जोगी काइ राजा कर पूत ॥ १६८॥ तत्क्षणे = तिसौ क्षण में= उसी क्षण में । बिहमानी = विहँसद (विहमति) का भूत-काल में एक-वचन, दूस का दूसरा रूप 'बिहसौ' भी होता है। कउतुक = कौतुक = लोला = तमाशा = चमत्कार । न = नु = निश्चय कर अवश्य । देखा = देखो देखद् (दृशि प्रेक्षणे से) का लोट् लकार में मध्यम-पुरुष एक-वचन । पुरुब = पूर्व । ततखन =