पृष्ठ:परमार्थ-सोपान.pdf/१७६

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૨૮ परमार्थसोपान [ Part I Ch. 4 6. TULSIDASA'S APOSTROPHE TO THE TONGUE. काहे न रसना रामहिं गावहि निस दिन पर अपवाद वृथा कृत, रटि रटि राग बढ़ावहि नर मुख सुन्दर मन्दिर पावन, बसि जनि ताहि लजावहि । ससि समीप रहि त्यागि सुधा कत, रविकर जल कहँ धावहि काम कथा कलि कैरव चन्दिनि, सुनत स्रवन दे भावहि | तिन्हहिं हटकि, भजि हरि कल कीरति, करन कलंक नसावहि जातरूप मति, युक्ति रुचिर मनि, रचि रचि हार बनावहि । सरन सुखद, रविकुल- सरोज रवि, राम नृपहिं पहिरावहि बाद विवाद स्वाद तजि, भजि हरि, सरस चरित चित लावहि । तुलसिदास भव तरहि, तिहुँ पुर, तू पुनीत जस पावहि