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प्रतिज्ञा

सुमित्रा---जो कुछ जी में आये कर लेना! यहाँ बाल-बराबर परवाह नहीं है।

कमला---तुम अपने घर चली जाओ।

सुमित्रा---मेरा घर यही है। यहाँ से और कहीं नहीं जा सकती।

कमला---लखपती बाप का घर तो है।

सुमित्रा---बाप का घर जब था तब था; अब यही घर है। मैं अदालत से लड़कर ५००) महीना ले लूँगी लाला, इस फेर में न रहना। पैर की जूती नहीं हूँ कि नई थी तो पहना, पुरानी हो गई तो निकाल फेंका।

ऐसा तुर्की-बतुर्की जवाब आज तक कमला ने कभी न पाया था। उसके तरकश में पैने-से-पैने जो तीर थे, वे सब उसने छोड़ दिये। घर से निकल जाने तक की धमकी दी; पर सुमित्रा पर कुछ भी असर न हुआ। अब वह क्या करे, पुरुष का स्त्री पर कितना नाममात्र का अधिकार है, यह आज उसे मालूम हुआ। वह सुमित्रा को मार नहीं सकता। घर से निकाल नहीं सकता। अधिक से अधिक यही कर सकता है, कि उसकी सूरत न देखे। और इसकी सुमित्रा को कोई चिन्ता नहीं जान पड़ती थी। अब विवश होकर उसे दुहाई देना पड़ा---निर्बलों का यही तो अस्त्र है। पूर्णा से बोला---देखती हो पूर्णा इनकी बातें! मैं जितना ही तरह देता हूँ, उतना ही यह शेर हुई जाती हैं।

पूर्णा---आप समझदार होकर जब कुछ नहीं समझते, तो उन्हें क्या कहूँ?

सुमित्रा ने ऐंठकर कहा---बहन, मुँह-देखे की सनद नहीं।

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