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प्रतिज्ञा

की मैं नहीं कहती। सत्तू बाँधकर खोजने निकलोगे तो मालूम होगा। बरसों दौड़ते गुज़र जायँगे। फिर बे-जाने-पहचाने घर, लड़की कौन व्याहेगा और प्रेमा क्यों मानने लगी?

बदरी॰—उसने अपने हाथ से क्यों खत नहीं लिखा? मेरा तो यही कहना है। क्या उसे इतना भी मालूम नहीं कि इसमें मेरा कितना अनादर हुआ? सारी परीक्षाएँ तो पास किये बैठा है। डाक्टर भी होने जा रहा है, क्या उसे इतना भी नहीं मालूम? स्पष्ट बात है। दोनों मिलकर मेरा अपमान करना चाहते हैं।

देवकी—हाँ सोहदे तो हैं ही, तुम्हारा अपमान करने के सिवा उनका और उद्यम ही क्या है। साफ़ तो बात है और तुम्हारी समझ में नहीं आती। न जाने बुद्धि का हिस्सा लगते वक्त तुम कहाँ चले गये थे। पचास वर्ष के हुए और इतनी मोटी-सी बात नहीं समझ सकते!

बदरीप्रसाद ने हँसकर कहा—मैं तुम्हें तलाश करने गया था।

देवकी अधेड़ होने पर भी विनोदशील थी, बोली—वाह, मैं पहले ही पहुँचकर कई हिस्से उड़ा ले गई थी। दोनों में कितनी मैत्री है, यह जो जानते ही हो। दाननाथ मारे संकोच के खुद न लिख सका होगा। अमृत बाबू ने सोचा होगा कि लालाजी कोई और वर न ठीक करने लगे; इसलिए यह ख़त लिखकर दानू से ज़बरदस्ती हस्ताक्षर करा लिया होगा।

बदरीप्रसाद ने झेंपते हुए कहा—इतना तो मैं भी समझता हूँ, क्या ऐसा गँवार हूँ?

देवकी—तब किसलिए इतना जामे से बाहर हो रहे थे। बुला कर

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