i ६४८ बृहदारण्यकोपनिषद् स० एषः यह पुरुष । सूर्यमण्डले सूर्यमण्डल बिथे । हि-निश्चय करके । ददृशे इव-देखा सो। योगिना योगियों करके प्रतीत होता है। साम्बही । परोरजाः इति-परोरजा है । एषः एव हि-यही सूर्यमण्डलस्थ पुरुष। सर्वस-सव । रजा लोको को । उपरि उपरि-उत्तरोत्तर । तपति-प्रकाशता है । जो पुरुप । अस्या इस गायत्री के । एतत्-इस चतुर्थ पाद, को । एवम् इस प्रकार । वेद-जानता है । साम्बह । एवम् सूर्यमण्डलस्थ पुरुष की तरह । ह एव-अवश्य । श्रिया संपत्ति करके । यशसा यश करके । तपति-प्रकाशवान् होता है। भावार्थ । प्राण में दो अक्षर प्रा, ण, अपान में तीन अक्षर 'अं, पा, न, व्यान में वि, आन, ये सब मिलाकर आठ अक्षर होते हैं, और गायत्री के तीसरे पाद में भी आठ अक्षर (धियो यो नः प्रचोदयात् ) होते हैं इस लिये प्राणं, अपान, व्यान की समता गायत्री के तीसरे पाद से है, अब गायत्री के तीसरे पाद की उपासना का फल आगे कहते हैं, जो कोई उपासक गायत्री के तीसरे पाद को प्राण-अपान- व्यान समझ कर उपासना करता है, वह सब प्राणियों को जीतता है, यानी अपने वश में रखता है, हे शिष्य ! इस गायत्री का चौथा पाद दर्शत नामवाला है, यही परोरजा है, दर्शत. का अर्थ है, जो ऋषियों करके सूक्ष्म विचार. द्वारा देखा गया है, और परोरजा का अर्थ सब से परे है, यानी जो प्रकृति के परे होकर सबको सूर्यवत् प्रकाशता है, यही परोरजा है, अथवा दर्शत तुरीय है, जो पुरुष सूर्यमण्डल विषे योगियों को दिखाई देता है वही परोरजा है, यही सूर्य: