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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२३५

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सत्यहरिश्चंद्र

जान सब अच्छा ही किया, परंतु न-जाने किस कारण मेरा सब आचरण तुम्हारे विरुद्ध पड़ा सो मुझे क्षमा करना! ( दुपट्टे की फाँसी गले में लगाना चाहता है कि एक साथ चौंक कर ) गोविंद! गोविंद! यह मैंने क्या अनर्थ अधर्म विचारा! भला मुझ दास को अपने शरीर पर क्या अधिकार था कि मैंने प्राण---त्याग करना चाहा! भगवान् सूर्य इसी क्षण के हेतु अनुशासन करते थे। नारायण! नारायण! इस इच्छा-कृत मानसिक पाप से कैसे उद्धार होगा? हे सर्वेतर्यामी जगदीश्वर! क्षमा करना। दुःख से मनुष्य की बुद्धि ठिकाने नहीं रहती। अब तो मै चांडाल कुल का दास हूँ। न अब शैव्या मेरी स्त्री है और न रोहिताश्व मेरा पुत्र! चलूँ, अपने स्वामी के काम पर सावधान हो जाऊँ, वा देखूँ, अब दुःखिनी शैव्या क्या करती है। ( शैव्या के पीछे जाकर खड़ा होता है )

शैव्या---( पहले की तरह बहुत रोकर ) हाय! अब मैं क्या करूँ! अब मैं किसका मुँह देखकर संसार में जीऊँगी! हाय! मैं आज से निपूती भई! पुत्रवती स्त्रियाँ अपने बालकों पर अब मेरी छाया न पड़ने देंगी! हा! नित्य सबेरे उठकर अब मैं किसकी चिंता करूँगी! खाने के समय मेरी गोद में बैठकर और मुझसे मॉग-मॉगकर अब कौन खायगा! मैं परोसी थाली सूनी देख कर कैसे प्राण रखूँगी! ( रोती