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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२३६

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भारतेंदु-नाटकावली

है ) हाय! खेलते-खेलते आकर मेरे गले से कौन लपट जायगा और मा-मा कहकर तनक-तनक बातो पर कौन हठ करेगा! हाय! मैं अब किसको अपने आँचल से मुँह की धूल पोछकर गले लगाऊँगी और किसके अभिमान से बिपत्ति में भी फूली-फूली फिरूँगी! ( रोती है ) या जब रोहिताश्व ही नहीं तो मैं ही जीके क्या करूँगी!( छाती पीटकर ) हाय प्राण! तुम अब भी क्यो नहीं निकलते? हाय! मैं ऐसी स्वारथी हूँ कि आत्महत्या के नरक के भय से अब भी अपने का नहीं मार डालती! नहीं-नहीं, अब मैं न जीऊँगी। या तो इस पेड़ में फॉसी लगाकर मर जाऊँगी या गंगा में कूद पडूँगी। ( उन्मत्ता की भाँति उठकर दौड़ना चाहती है )

हरि०---( आड़ में से )

तनहिं बेचि दासी कहवाई।
मरत स्वामि-पायसु बिनु पाई॥
करु न अधर्म सोच जिय माहीं।
"पराधीन सपने सुख नाहीं"॥

शैव्या---( चौकन्नी होकर ) अहा! यह किसने इस कठिन समय में धर्म का उपदेश किया। सच है, मैं अब इस देह की कौन हूँ जो मर सकूँ! हाय दैव! तुझसे यह भी न देखा