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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/३०६

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श्रीचंद्रावली

ललिता---यह बलिहारी कुछ काम न आवेगी, अंत में फिर मैं ही काम आऊँगी और मुझी से सब कुछ कहना पड़ेगा, क्योंकि इस रोग का वैद्य मेरे सिवा दूसरा कोई न मिलेगा।

चंद्रा०---पर सखी जब कोई रोग हो तब न?

ललिता---फिर वही बात कहे जाती है। अब क्या मैं इतना भी नहीं समझती! सखी, भगवान् ने मुझे भी ऑखें दी हैं और मेरे भी मन है और मैं कुछ ईट-पत्थर की नहीं हूँ।

चंद्रा०---यह कौन कहता है कि तू ईट-पत्थर की बनी है, इससे क्या?

ललिता---इससे यह कि इस ब्रज में रहकर उससे वही बची होगी जो ईट-पत्थर की होगी।

चंद्रा०---किससे?

ललिता---जिसके पीछे तेरी यह दशा है।

चंद्रा०---किसके पीछे मेरी यह दशा है?

ललिता---सखी, तू फिर वही बात कहे जाती है। मेरी रानी, ये अॉखें ऐसी बुरी हैं कि जब किसी से लगती हैं तब कितना भी छिपाओ नहीं छिपतीं।

छिपाए छिपत न नैन लगे।
उधरि परत, सब जानि जात हैं घूँघट मैं न खगे॥
कितनो करौ दुराव, दुरत नहीं जब ये प्रेम-पगे।
निडर भए उघरे से डोलत मोहनरंग रँगे॥