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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/३०७

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भारतेंदु-नाटकावली

चंद्रा०---वाह सखी क्यों न हो, तेरी क्या बात है। अब तू ही तो एक पहेली बूझनेवालों में बची है। चल, बहुत झूठ न बोल, कुछ भगवान् से भी डर।

ललिता---जो तू भगवान् से डरती तो झूठ क्यों बोलती? वाह सखी! अब तो तू बड़ी चतुर हो गई है। कैसा अपना दोष छिपाने को मुझे पहिले ही से झूठी बना दिया। ( हाथ जोड़ कर ) धन्य है, तू दंडवत् करने के योग्य है। कृपा करके अपना बॉयाँ चरण निकाल तो मैं भी पूजा करूँ। चल मैं आज पीछे तुझसे कुछ न पूछूँगी।

चंद्रा०---( कुछ सकपकानी सी होकर ) नहीं सखी, तू क्यो झूठी है, झूठी तो मैं हूँ, और जो तू ही बात न पूछेगी तो कौन बात पूछेगा? सखी, तेरे ही भरोसे तो मैं ऐसी निडर रहती हूँ और तू ऐसी रूसी जाती है!

ललिता---नहीं, बस अब मैं कभी कुछ नहीं पूछने की। एक बेर पूछ कर फल पा चुकी।

चंद्रा०---( हाथ जोड़कर ) नहीं सखी, ऐसी बात मुँह से मत निकाल। एक तो मैं आप ही मर रही हूँ, तेरी बात सुनने से और भी अधमरी हो जाऊँगी। ( अॉखों में आँसू भर लेती है )

ललिता---प्यारी, तुझे मेरी सौगंद। उदास न हो, मैं तो सब भाँति तेरी हूँ और तेरे भले के हेतु प्राण देने को तैयार