द्वितीय संस्करण की भूमिका भाषा-विज्ञान का पहला संस्करण सं० १९८१ में प्रकाशित हुआ था । जिन परिस्थितियों के वश में होकर मुझे यह पुस्तक तैयार करनी पड़ी थी उनका उल्लेख उसकी भूमिका में, जो इस नवीन संस्करण में भी प्रकाशित की जाती है, कर दिया गया है। उनको ध्यान में रखकर पुस्तक जैसी बन पड़ी तैयार की गई, पर वह संतोषजनक न हुई । एक तो समय को संकीर्णता के कारण उस समय अधिक जांच-पड़ताल न की जा सकी । दूसरे उस समय पर्याप्त सामग्री भी उपलब्ध न हो सकी । इस स्थिति में उसमें बहुत सी त्रुटियों का रह जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं। पहले मेरा विचार एक नई पुस्तक लिखने का था और इस उद्देश्य से भाषा-रहस्य का पहला भाग प्रस्तुत किया गया था। पर श्रनेक विघ्न-बाधाओं के उपस्थित होने के कारण उसका दूसरा माग अब तक न लिखा जा सका । इस अवस्था में भाषा-विज्ञान को ही नया रूप देने का निश्चय किया गया । इस नए रूप में श्रय यह प्रस्तुत है। इम संस्करण में मात प्रकरण हैं। पहले प्रकरण में शास्त्र की महत्ता, उसका विस्तार तथा अन्य शास्त्रों से उसका संबंध दिखाया गया है और संक्षेप में माता-विज्ञान के विकाम का इतिहास दिया गया है । दूसरे प्रकरण में भाषा और भाग के संबंध में विचार किया है। इसमें भाया और भापण कर भेद ना माषा की उत्पत्ति का इतिहास दिया गया है। तीसरे प्रकरण में ग्राहनिमूलक तथा वंशानुक्रम से भाषाओं का वर्गीकरण किया गया है और सिंचन विस्तार ने भागेपीय-वर्ग की भाषानों का विवरण दिया गया है। यहा तक भाषा-विज्ञान की भूमिका समझनी चाहिए। भाषा-विज्ञान के मुख्य अंग जीन ध्वनि-विचार, रूप-विचार और श्रर्थ-विचार । इन्हीं तीन अंगों या चौरान श्रीर इठे प्रकरणों में विवेचन किया गया है। अब तक भाषन में स्प-विनार और अर्य-विचार पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता या पाडा ये अंग महत्वपूर्ण माने जाते है और इन पर अधिकाधिक