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पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/३५४

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महाभारतमीमांसा
  • महाभारतमीमांसा #

- दमेबाजीकी रुचि उत्पन्न हो गई है। वाले और ब्रह्मज्ञान संयुक्त मनुष्यको पौरा. और उनकी सत्यवादितामें भी न्यूनता आ णिक बनावे और आठ मंत्रियों के बीचमें गई है। खैर; इस विषयमें अधिक न कह- बैठकर न्याय करे। न्याय करते समय कर हम यहाँ पर भारतकालीन न्याय- किसी पक्षकी ओरसे राजा अन्तस्य द्रव्य पद्धतिका वर्णन करेंगे । उससे हमें यह न ले, क्योंकि इससे राजकार्यका विघात मालूम हो जायगा कि ब्रिटिश राज्यके होता है और देने और लेनेवाले दोनोंको प्रारम्भ होमेतक थोड़े बहुत रूपान्तर- पाप लगता है । "यदि ऐसा करेगा तो से भारत-कालीन न्यायपद्धति ही हिन्दु राजाके पाससे प्रजा ऐसे भागेगी स्थानमें प्रचलित थी। जैसे श्येन अथवा गरुड़के पाससे महाभारतकालमें राज्य छोटे होते थे : पक्षी भागते हैं और राष्ट्रका नाश हो अतएव स्मृतिशास्त्रके इस नियमका बहुधा जायगा । जो निर्बल मनुष्य बलवान्से पालन हो जाया करता था कि न्याय- पीड़ित होकर 'न्याय न्यायाचिल्लाता हश्रा दरबारमें स्वयं राजा बैठे । यह नियम राजाकी ओर दौड़ता है, उसे राजासे पहले बताया जा चुका है कि राजा न्याय मिलना चाहिए । यदि प्रतिवादी विवादके न्याय करनेका काम किसीको न : स्वीकार न करे तो साक्षीके प्रमाणसे सौंपे । तदनुसार राजा प्रतिदिन गज- इन्साफ करना चाहिए । यदि साक्षी न दरबारमें श्राकर न्याय किया करता था। हो तो बड़ी युक्तिसे निर्णय करना चाहिए। न्यायकार्यमें राजाको सहायता देनेके अपराधके मानसे सजा देनी चाहिए। लिए एक राजसभा रहती थी । इस धनवान श्रादमियोंको जुर्माना करना राजसभाका वर्णन शांतिपर्वके -पवं अध्या-चाहिए, गरीबोको कैदकी सजा और यमें किया गया है । इसमें सन्देह नहीं कि दुराचरणी लोगोंको बेतकी सजा देनी यह अध्याय विवादोंके ही निर्णयके चाहिए । राजाके खून करनेवालेके प्राण बारेमें है। युधिष्ठिरने उसी विषय पर लेनेके पहले उसकी खूब दुर्दशा करनी प्रश्न किया था। तब भीमने जो अमात्य चाहिए। इसी तरह आग लगानेवाले, ( मंत्री) बतलाये हैं ये न्यायसभाके ही ! और जातिभ्रष्ट करनेवालेका भी वध है और इस अध्यायके सम्पूर्ण वर्णनमे करना चाहिए । न्याय और उचित दण्ड यही सिद्ध होता है । यह नियम था कि देनेमें राजाको पाप नहीं लगता। परन्तु सभामें चार वेदवित् गृहस्थाश्रमी और जो राजा मनमानी सज़ा देता है. उसकी शुद्ध आचरणके ब्राह्मण, शस्त्र चलाने- 'इस लोकमें अपकीर्ति होकर अन्तमें उसे वाले आठ बलवान् क्षत्रिय, इक्कीस धन-नरकवास करना पड़ता है । इस बात पर वान वैश्य और पवित्र तथा विनयसंपन्न पूरा ध्यान रखना चाहिए कि किसी एक- तीन शूद्र हो । सारांश, यहाँ आशा दी के अपराधके बदले किसी दूसरेको सजा गई है कि सभी वर्गों के लोगोंसे भरी हुई न मिल जाय” (शान्ति पर्व अ० ८५)। ज्यूरी सरीखी न्याय-सभाकी सलाहसे इस वर्णनमें समग्रन्याय-पद्धतिके तत्त्वका विवादोका निर्णय किया जाय। इसके प्रतिपादन थोड़ेमें किया गया है। न्यायके सिवा यह भी कहा गया है कि राजा कामोंमें राजाको चारों वर्गों के मनुष्योंकी विधासम्पन्न, प्रौढ़, सूत जातिके, पचास ज्यूरीकी सहायता मिलती थी। इस ज्यूरी- वर्षकी अवस्थाके, तर्कशास्त्र-शान रखने में वैश्योंकी संख्या अधिक है। परन्तु यह