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पृष्ठ:माधवराव सप्रे की कहानियाँ.djvu/८

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स्पष्टीकरण के दो शब्द

विशाल भवनों की नींव के दृढ़ और विशाल पत्थर गगनचुंबी प्रासादों का बोझ सँभाले अज्ञात पड़े रहते हैं। उन्हें कोई जानता भी नहीं, देखना तो दूर की बात है। "शिलान्यास", "उद्घाटन" आदि के कुछ पत्थर जो इस प्रकार सावधानी से लगाये जाते हैं कि सदैव निगाह में आते रहें, वे अवश्य सभी को दिखायी पड़ते हैं, और फिर प्रासाद के उठने पर उसके खंभों, महराबों में लगे आलंकारिक और सौन्दर्यवर्द्धक पत्थरों पर भी लोगों की दृष्टि जाती है। ऊपरी भाग के अन्य अनेक पत्थरों पर भी लोगों की निगाह पड़ती है, किन्तु नींव के पत्थर, जिनके बिना प्रासाद उठता ही नहीं, अज्ञात और अनभिनन्दित पड़े रहते हैं। शायद यही उनकी नियति है।

आधुनिक हिन्दी के 'शिलान्यास के पत्थर' भारतेन्दु और शायद 'उद्‌घाटन के पत्थर' आचार्य द्विवेदी तथा अलंकरण के अनेक बहु-विज्ञापित पत्थर आज ज्ञात, चर्चित और अभिनंदित हैं। यह उचित भी है। किन्तु नींव के अनेक बहुत महत्त्वपूर्ण पत्थर विस्मृत कर दिये गये हैं। उनके नाम गिनाना भी व्यर्थ है। मैंने उनकी चर्चा करते समय अनेक 'डॉक्टरों' को उनका नाम सुनकर आश्चर्य से अपनी ओर ताकते देखा है। अतएव उनकी संक्षिप्त तालिका भी देना अनावश्यक समझता हूँ। प्रस्तुत पुस्तक के संदर्भ में उन विशाल और महत्त्वपूर्ण नींव के पत्थरों में से केवल एक ही की चर्चा आवश्यक है। वे थे पण्डित माधवराव सप्रे।

इस भूमिका में भी उनके संबंध में अधिक लिखने का अवकाश नहीं है। इतना कहना ही पर्याप्त है कि आधुनिक हिन्दी के आदिकाल