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पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/१११

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द्वितीय खण्ड स आत्मवेत्ताकी पूजाका फल यस्मात्- क्योंकि- वेदैतत्परम ब्रह्म धाम यत्र विश्वं निहितं भाति शुभ्रम् । उपासते पुरुषं ये ह्यकामा- स्ते शुक्रमेतदतिवर्तन्ति धीराः ॥ १ ॥ वह ( आत्मवेत्ता) इस परम आश्रयरूप ब्रह्मको, जिसमें यह समस्त जगत् अर्पित है और जो स्वयं शुद्धरूपसे भासमान हो रहा है, जानता है। जो निष्काम भावसे उस आत्मज्ञ पुरुपकी उपासना करते हैं वे बुद्धिमान् लोग शरीरके बीजभूत इस वीर्यका अतिक्रमण कर जाते है । [ अर्थात् इसके बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं ] ॥ १ ॥ म वेद जानातीत्येतद्यथोक्त (आत्मवेत्ता) सम्पूर्ण लक्षणं ब्रह्म परममुत्कृष्टं धाम सर्व- कामनाओके परम यानी उत्कृष्ट आश्रयभूत इस पूर्वोक्त लक्षणवाले कामानामाश्रयमास्पदं यत्र यस्मिन् ब्रह्मको जानता है, जिस ब्रह्मपदमें ब्रह्मणि धाम्नि विश्वं समस्तं यह विश्व यानी सम्पूर्ण जगत् निहित-समर्पित है और जो कि जगन्निहितमर्पितं यच्च स्वेन अपने तेजसे—शुद्धरूपसे प्रकाशित ज्योतिषा भाति शुभं शुद्धम् । हो रहा है । उस इस प्रकारके आत्मज्ञ पुरुषकी भी जो लोग निष्काम तमप्येवमात्मज्ञं पुरुषं ये ह्यकामा अर्थात् ऐश्वर्यकी तृष्णासे रहित विभूतितृष्णावर्जिता मुमुक्षवः । होकर यानी मुमुक्षु होकर परमदेवके वह