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पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/११२

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१०४ मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक ३ सन्त उपासते परमिव सेवन्ते ते समान उपासना करते हैं व धीर-बुद्धिमान् पुरुष शुक्र यानी शुक्रं नृबीजं यदेतत्प्रसिद्धं शरीरो- मनुष्यदेहके बीजका, जो कि शरीर- पादानकारणमतिवर्तन्त्यति के उपादान कारणरूपसे प्रसिद्ध है, अतिक्रमण कर जाते हैं; गच्छन्ति धीरा धीमन्तो न अर्थात् फिर योनिमें प्रवेश नहीं पुनर्योनि असर्पन्ति “न पुनः करते, जैसा कि "फिर कहीं प्रीति क्वचिद्रति करोति" इति श्रुतेः। है। अतः तात्पर्य यह है कि नहीं करता" इस श्रुतिमे सिद्ध होता अतस्तं पूजयेदित्यभिप्रायः ॥१|| : उसका पूजन करना चाहिये ॥ १ ॥ निष्कामतासे पुनर्जन्मानिवृत्ति मुमुक्षोः कामत्याग एवं मुमुक्षुके लिये कामनाका त्याग ही प्रधान साधन है -इस बातको प्रधानं साधनमित्येतदर्शयति- दिखलाते हैं- कामान्यः कामयते मन्यमानः स कामभिर्जायते तत्र तत्र । पर्याप्तकामस्य कृतात्मनस्त्वि- हैव सर्वे प्रविलीयन्ति कामाः॥२॥ [ भोगोंके गुणोंका ] चिन्तन करनेवाला जो पुरुष भोगोंकी इच्छा करता है वह उन कामनाओंके योगसे तहाँ-तहाँ ( उनकी प्राप्तिके स्थानोंमें ) उत्पन्न होता रहता है। परन्तु जिसकी कामनाएँ पूर्ण हो गयी है उस कृतकृत्य पुरुपकी तो सभी कामनाएँ इस लोकमें ही लीन हो जाती हैं ॥२॥ कामान्यो दृष्टादृष्टेष्टविषयान् जो पुरुप काम अर्थात् दृष्ट और अदृष्ट अभीष्ट विषयोंकी, उनके कामयते मन्यमानस्तद्गुणांश्चि- गुणोंका मनन न-चिन्तन करता