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पृष्ठ:योगिराज श्रीकृष्ण.djvu/६०

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गोकुल ग्राम /59
 

हम प्रतिदिन ऐसी बातें देखते हैं, जिनमें परमात्मा बड़ी तत्परता से अबोध बालकों की रक्षा किया करते हैं। कई बार बालक छत से गिर पड़ा है पर उसे तनिक भी चोट नहीं आई। तात्पर्य यह कि ये सारी घटनाएँ ऐसी हैं जिनमें से यदि कवियों की अत्युक्ति निकाल दी जाये तो उनमें असंभवता की गन्ध भी नहीं रह जाती और न उन्हें अमानुषी कहने का साहस पड़ता है।

एक वर्ष बीतने पर वसुदेव ने अपने पुरोहित गर्ग को भेजा जिसने गोपनीय रूप से उनका नामकरण संस्कार कर दिया। रोहिणी के बालक का नाम बलराम और देवकी के पुत्र का कृष्ण रखा गया।

ये दोनों वालक ज्यों-ज्यों बड़े होते गये उनकी चंचलता भी बढ़ती जाती थी। इनमें कृष्ण विशेष चतुर और चंचल थे। रेंगते-रेंगते पशुओ में जा घुसते और छोटे-छोटे बछड़ों से खेला करते! दूध-दही के बरतनों को उलट देते। जब टाँगों में थोड़ा बल आया तो इनके ऊधम ने और भी रंग पकड़ा। घर से निकल जाना, दूसरों के धरो में जाकर हँसी-मजाक करना, बछडो या गउओं की पूँछ खीचना इत्यादि बातें ऐसी थीं जो एक चंचल, चतुर तथा बुद्धिमान लड़के मे हुआ करती हैं और जिनसे तंग आकर उनके माता-पिता या शिक्षक उन्हें ऊधमी कहने लग जाते हैं, क्योंकि उनको ऐसे चंचल लड़कों के शिक्षण का ढंग नहीं आता। वह स्वयं इसके ढंग से अनभिज्ञ होते हैं। इस बात के अनेक प्रमाण मिलते हैं कि कृष्ण अपनी बाल्यावस्था में बड़े चंचल तथा ऊधमी थे। अपने कामों को बड़ी फुर्ती से करते थे। भय तो कभी इनके पास नही फटकता था। उत्तर देने तथा हँसी-मजाक में भी वैसे ही प्रवीण थे। पुराण तो इनके हँसी ठठे का यहाँ तक वर्णन करता है कि वह पड़ोसियों का दूध पी जाते थे, दही खा जाते थे और यदि इस बीच में कोई आ निकलता तो दूर सामने खड़े हो उपहास की बाते कहने लग जाते। सारांश यह कि कृष्ण अपने समकालीन बालकों से प्रत्येक बात में बढ़े-चढ़े थे। गोप बालकों की मंडली में बैठे हुए या फिरते हुए भी एक विचित्र आनवान रखते थे और अपने साथियों में नेता और बड़प्पन के रंग-ढंग दिखाते थे।

निडर ऐसे थे कि कैसी ही मरखनी गाय या साँड से न डरते, भेड़ियो व दूसरे जगली जानवरों से निर्भय बन में घूमा करते थे। यशोदा बिचारी इधर-उधर ढूँढ़ा करती, उन्हें देखते ही बिजली की तरह वे कहीं छिप जाते। कभी यमुना में जा घुसते। रात को जब सो जाते तो वह समझती कि आज का दिन कुशलता से बीता। इतने चंचल होते हुए भी वह सबको प्यार लगते थे; क्योंकि एक तो वह ऐसे रूपवान थे कि सब छोटे-बड़े उनसे प्रेम रखते, दूसरे उनकी चंचलता इतनी मोहक थी, जो कठोर से कठोर हृदय को भी शांत करके हॅसा देती थी। तीसरे, अपने हमजोलियों मे वह सर्वप्रिय थे। उनकी बात सब मानते। उनसे जुदा होना उन्हें खटकता। वे दिन-भर उन्हे अपनी हास्यप्रद बातों से हँसाया करते। नाचने ऐसे कि देखने वाला हँसते-हँसते लोटपोट हो जाता। बोली ऐसी सुरीली कि छोटी उमर में गरियो के गीत गाकर भीड़ अपने पास जमा कर लेते। कुछ बड़े होने पर वंशी बजाने में प्रवीण हो गए थे। इन सब गुणों ने मिलकर उस जंगली (गोप) जाति को ऐसा मोहित कर लिया था कि वे