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पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/१०३

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योगप्रदीप
 

प्राप्त होनेवाली भागवती दया सर्वथा अलीक कल्पनाएँ ही नहीं हैं; आध्यात्मिक जीवनके ये महान् और प्रत्यक्ष अनुभव हैं।

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कर्मसे मेरा अभिप्राय वह कर्म नहीं है जो अहंता और अज्ञानता, अहंताकी तुष्टिके लिये, राजसी कामनाके आवेशमें किया जाता है। अहंकार, रजस् और काम अज्ञानकी मुहरछाप हैं, इनसे विमुक्त होनेकी इच्छा के बिना कर्मयोग हो ही नहीं सकता।

कर्मयोगसे मेरा अभिप्राय परोपकार या मनुष्यजातिकी सेवा अथवा उन सब नैतिक या मनःकल्पित बातों से नहीं है जो मनुष्यका मन कर्मके गभीरतर तत्त्वके स्थानमें लाकर बैठाया करता है।

कर्मसे मेरा अभिप्राय वह कर्म है जो भगवान् के लिये किया जाय, भगवान् से अधिकाधिक युक्त होकर किया जाय—केवल भगवान् के लिये किया जाय, और किसी चीज के लिये नहीं। अवश्य ही आरम्भ में यह सहज नहीं है जैसे गभीर ध्यान और ज्योतिर्मय ज्ञान या सच्चा प्रेम और भक्ति भी आरम्भमें सहज नहीं हैं। परन्तु ध्यान, ज्ञान, प्रेम, भक्तिकी तरह कर्म भी यथावत् सद्भाव

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