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पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/३९

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योगप्रदीप
 

भाव, क्रोध, भय, लोभ, लोलुपता आदि एतत्क्षेत्रगत भावों-से बनी हुई होती है। मन और प्राण चेतनाके बाह्य भागमें एक दूसरे से मिले रहते हैं, पर ये दोनों एक दूसरे से स्वतन्त्र शक्तियाँ हैं और ज्यों ही कोई सामान्य बाह्य चेतनाके परे पहुँचता है त्यों ही वह इन्हें पृथक-पृथक् देख लेता है, इनका पृथक वैशिष्टय जान लेता है और तब इस ज्ञानकी सहायता से इनके ऊपरी संमिश्रणका विश्लेषण कर सकता है। ऐसा भी समय होता है—थोड़ा या अधिक अथवा कभी-कभी बहुत ही अधिक—जब यह सर्वथा सम्भव है कि बुद्धि तो ईश्वर या योगके ध्येयको स्वीकार किये रहे पर प्राणको विश्वास न हो और वह शरणागत न होकर अपने सामान्य अभ्यस्त जीवनकी ही वासना, वेग और आकर्षण के रास्तेपर हठपूर्वक चलता रहे। मन-बुद्धि और प्राणोंका यह परस्पर विभेद और विरोध ही प्रायः साधनाकी अति तीव्र कठिनाइयोंका कारण होता है।

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जो कुछ तुम्हारे अन्दर होता है उसे अन्तःस्थित मानस पुरुष देखता रहता है, समझता रहता है और भले-बुरेका निर्णय करता रहता है। हृत्पुरुष इस रूपसे साक्षिवत्न हीं देखता-समझता, बल्कि अपने स्वरूपकी पवित्रताहीसे तथा स्वस्वरूपगत सहज भागवत बोधमे ही, इससे बहुत अधिक प्रत्यक्ष और स्वतः प्रकाशित मार्गसे, सहजरीत्या,

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