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पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/१४३

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रंगभूमि


होती ही है। लेकिन इतना कमीना नहीं हूँ कि भभीखन की भाँति अपने भाई के घर में आग लगवा दूँ। क्या इतना नहीं जानता कि मरने-जीने में, बिपत-संपत में, मुहल्ले के लोग ही काम आते हैं? कभी किसी के साथ विश्वासघात किया है? पण्डाजी ही कह दें, कभी उनकी बात दुलखी है। उनकी आड़ न होती, तो पुलिस ने अब तक मुझे कब का लदवा दिया होता, नहीं तो रजिस्टर में नाम तक नहीं है।"

नायकराम-'भैरो, तुमने अवसर पड़ने पर कभी साथ नहीं छोड़ा, इतना तो मानना ही पड़ेगा।"

भैरो-“पण्डाजी, तुम्हारा हुक्म हो, तो आग में कूद पड़ूँ।"

इतने में सूरदास भी आ पहुँचा। सोचता आता था-"आज कहाँ खाना बनाऊँगा, इसकी क्या चिंता है; बस, नीम के पेड़ के नीचे बाटियाँ लगाऊँगा। गरमी के तो दिन हैं, कौन पानी बरस रहा है।" ज्यों ही बजरंगी के द्वार पर पहुचा कि जमुनी ने आज का सारा वृत्तांत कह सुनाया। होश उड़ गये । उपले-ईधन की सुधि न रहा। सीधे नायकराम के यहाँ पहुँचा। बजरंगी ने कहा-“आओ सूरे, बड़ी देर लगाई, क्या अभी चले आते हो? आज तो यहाँ बड़ा गोलमाल हो गया।”

सूरदास-"हाँ, जमुनी ने अभी मुझसे कहा। मैं तो सुनते ही ठक रह गया।"

बजरंगी-"होनहार थी, और क्या। है तो लौंडा, पर हिम्मत का पक्का है। जबा तक हम लोग हाँ-हाँ करें, तब तक फिटन पर से कूद ही तो पड़ा और लगा हाथ-पर-हाथ चलाने।"

सूरदास-"तुम लोगों ने पकड़ भी न लिया?”

बजरंगी-"सुनते तो हो, जब तक दौड़ें, तब तक तो उसने हाथ चला ही दिया।"

सूरदास—"बड़े आदमी गाली सुनकर आपे से बाहर हो जाते हैं।"

जगधर-"जब बीच बाजार में बेभाव की पड़ेंगी, तब रोयेंगे। अभी तो फूले न समाते होंगे।"

बजरंगी-"जब चौक में निकलै, तो गाड़ी रोककर जूतों से मारे।"

सूरदास—"अरे, अब जो हो गया, सो हो गया, उसकी आबरू बिगाड़ने से क्या मिलेगा?"

नायकराम—"तो क्या मैं यों ही छोड़ दूँगा! एक-एक बेत के बदले अगर सौ-सौ जूते न लगाऊँ, तो मेरा नाम नायकराम नहीं। यह चोट मेरे बदन पर नहीं, मेरे कजेले पर लगी है। बड़े-बड़ों का सिर नीचा कर चुका हूँ, इन्हें मिटाते क्या देर लगती है। (चुटकी बजाकर) इस तरह उड़ा दूँगा।”

सूरदास—"बैर बढ़ाने से कुछ फायदा न होगा। तुम्हारा तो कुछ न बिगड़ेगा, लेकिन मुहल्ले के सब आदमी बँध जायँगे।"

नायकराम-"कैसी पागलों की-सी बातें करते हो! मैं कोई धुनिया-चमार हूँ कि इतनी बेइजती कराके चुप हो जाऊँ? तुम लोग सूरदास को कायल क्यों नहीं करते जी?