सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/१४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
१४६
रंगभूमि


क्या चुप होके बैठ रहूँ? बोलो वजरंगी, तुम लोग भी डर रहे हो कि वह किरस्तान सारे मुहल्ले को पीसकर पी जायगा?"

बजरंगी-"औरों की तो मैं नहीं कहता, लेकिन मेरा बन चले, तो उसके हाथ-पैर तोड़ दूँ, चाहे जेहल ही क्यों न काटना पड़े। वह तुम्हारी ही बेइजती नहीं है, मुहल्ले-भर के मुँह में कालिख लग गई है।"

भैरो-"तुमने मेरे मुँह से बात छीन ली। क्या कहूँ, उस बखत मैं न था, नहीं तो हड्डी तोड़ डालता।”

जगधर-"पण्डाजी, मुँह-देखी नहीं कहता, तुम चाहे दूसरों के कहने-सुनने में आ जाओ, लेकिन मैं बिना उसकी मरम्मत किये न मानूँगा।"

इस पर कई आदमियों ने कहा-"मुखिया की इज्जत गई, तो सब की गई। वही तो किरस्तान है, जो गली-गली ईसा मसीह के गीत गाते फिरते हैं। डोमड़ा, चमार जो गिरजा में जाकर खाना खा ले, वही किरस्तान हो जाता है। वही बाद को कोट-पतलून पहनकर साहब बन जाते हैं।"

ठाकुरदीन-"मेरी तो सलाह यही है कि कोई अनुष्ठान करा दिया जाय।"

नायकराम-"अब बताओ सूरे, तुम्हारी बात मानूँ या इतने आदमियों की? तुम्हें यह डर होगा कि कहीं मेरी जमीन पर आँच न आ जाय, तो इससे तुम निश्चित रहो।

राजा साहब ने जो बात कह दी, उसे पत्थर की लकीर समझो। साहब सिर रगड़कर मर जायँ, तो भी अब जमीन नहीं पा सकते।"

सूरदास--"जमीन की मुझे चिंता नहीं है। मरूँगा, तो सिर पर लाद थोड़े ही लें जाऊँगा। पर अंत में यह मारा पार मेरे ही गिर पड़ेगा। मैं ही तो इस मारे तूफान की जड़ हूँ, मेरे ही कारन तो यह रगड़-झगड़ मची हुई है, नहीं तो साहब को तुमसे कौन दुसमनी थी।"

नायकराम---"यारो, सूरे को समझाओ।"

जगधर---"सूरे, सोचो, हम लोगों की कितनी बेआबरूई हुई है!"

सूरदास-"आबरू को बनाने-बिगाड़नेवाला आदमी नहीं है, भगवान है। उन्हीं की निगाह में आबरू बनी रहनी चाहिए। आदमियों का निगाह आवरू की परख कहाँ है। जन सूद खानेवाला बनिया, घूम लेनेवाला हाकिम और झूठ बोलनेवाला गवाह बेआबरू नहीं समझा जाता, लोग उसका आदर-मान करते हैं तो हा सच्ची आयरू की कदर करनेवा। कोई है ही नहीं।"

बजरंगी—"तुमसे कुछ मतलब नहीं, हम लोग जो चाहेंगे, करेंगे।"

सूरदास-"अगर मेरी बात न मानोगे, तो मैं जाके साहब से सारा माजरा कह सुनाऊँगा।"

नायकराम-"अगर तुमने उधर पैर रखा, तो याद रखना, यहां खोदकर गाड़ दूँगा। तुम्हें अंबा-अपाहिज समझकर तुम्हारी मुरौवत करता हूँ, नहीं तो तुम हो किस