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पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/३७३

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रंगभूमि


रहा, मानों उसे कुछ खबर ही नहीं। जरा देर में ज्याला प्रचड हुई, सारा मुहल्ला आलोकित हो गया, चिड़ियाँ वृक्षों पर से उड़-उड़कर भागने लगीं, पेड़ों की झलें हिलने लगी, तालाब का पानी सुनहरा हो गया और बाँसों की गाँठं जोर-जोर से चिटकने लगीं। आध घंटे तक लंकादहन होता रहा, पर यह सारा शोर वन्य रोदन के सदृश था। दूकान बस्ती से हटकर थी। भैरो नशे में बेसुध पड़ा था, बुढ़िया नाचते-नाचते थक गई थी। और कौन था, जो इस वक्त आग बुझाने जाता? अग्नि ने निर्विघ्न अपना काम समाप्त किया। मटके टूट गये, ताड़ी बह गई। जब जरा आग ठंडी हुई, तो कई कुत्तों ने आकर वहाँ विश्राम किया।

प्रातःकाल भैरो उठा, तो दूकान सामने न दिखाई दी। दूकान और उसके घर के बीच में दो फरलाँग का अंतर था, पर कोई वृक्ष न होने के कारण दूकान साफ नजर आती थी। उसे विस्मय हुआ, दूकान कहाँ गई! जरा और आगे बढ़ा, तो राख का ढेर दिखाई दिया। पाँव-तले से मिट्टी निकल गई। दौड़ा। दूकान में ताड़ी के सिवा बिक्री के रुपये भी थे। ढोल-मँजीरा भी वहीं रखा रहता था। प्रत्येक वस्तु जलकर राख हो गई। मुहल्ले के लोग उधर तालाब में मुँह-हाथ धोने जाया करते थे। सब आ पहुँचे। दूकान सड़क पर थी। पथिक भी खड़े हो गये। मेला लग गया।

भैरो ने रोकर कहा-“मैं तो मिट्टी में मिल गया।"

ठाकुरदीन-"भगवान की लीला है। उधर वह तमासा दिखाया, इधर यह तमासा दिखाया। धन्य हो महाराज!"

बजरंगी-"किसी मिस्त्री की सरारत होगी। क्यों भैरो, किसी से अदावत तो नहीं थी?”

भैरो-“अदावत सारे मुहल्ले से है, किससे नहीं है। मैं जानता हूँ, जिसको यह बदमासी है। बँधवा न दिया, तो कहना। अभी एक को लिया है, अब दूसरे की पारी है।"

जगधर दूर ही से आनंद ले रहा था। निकट न आया कि कहीं भैरो कुछ कह बैठे, तो बात बढ़ जाय। ऐसा हार्दिक आनंद उसे अपने जीवन में कभी न प्राप्त हुआ था।

इतने में मिल के कई मजदूर आ गये। काला मिस्त्री बोला-भाई, कोई माने या न माने, मैं तो यही कहूँगा कि अंधे को किसी का इष्ट है।"

ठाकुरदीन—"इष्ट क्यों नहीं है। मैं बराबर यही कहता आता हूँ। उससे जिसने बैर ठाना, उसने नीचा देखा।”

भैरो—“उसके इष्ट को मैं जानता हूँ। जरा थानेदार आ जायँ, तो बता दूँ, कौन इष्ट है।"

बजरंगी जलकर बोला—"अपनी बेर कैसी सूझ रही है! क्या वह झोपड़ा न था, जिसमें पहले आग लगी। ईट का जबाब पत्थर मिलता ही है। जो किसी के लिए गढ़ा खोदेगा, उसके लिए कुआँ तैयार है। क्या उस झोपड़े में आग लगाते समय समझे थे कि सूरदास का कोई है हो नहीं?"

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